Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 431
________________ ४८२ जैन-शिलालेख-संग्रह राजाने उनका स्वागत कर प्रणाम किया तथा यह समझकर कि इन्हीं पार्श्वनाथ भगवानकी स्थापनासे उसकी युद्ध में विजय तथा पुत्रोत्पत्ति तथा सुख-समृद्धि हुई है, उसने देवताका नाम विजयपाच तया पुत्रका नाम विजय नारसिंह-देव रक्खा। __ अपने पुत्र की समृद्धि तथा विश्व शान्तिको बढ़ानेके लिये उसने भासन्दिनाड्के जावगळ्का इस मन्दिरके लिये दान किया । और भी (उक्त) बहुत से दान दिये। तेली दासगौण्डने भगवान के लिये पुरोहित शान्ति-देवको भूमि-दान किया । पार्श्व-जिनकी अष्टविध पूजाके लिये दास-गौण्ड और राम-गोण्डने 'उत्तरायण संक्रमण के समय (उक्त) दान दिये । शान्तिकी प्रशंसा। नेमिचन्द्र-पण्डित-देव इस कामकी व्यवस्थापर रक्खे गये । ये नयकीर्तिसिद्धान्त-चक्रवर्तीके शिष्य थे।] [EO, V, Belur tl., n° 124 ] कोल्हापूर-संस्कृत [११३५ ई० (फ्लीट)] मूल लेख अक्टूबर १९०० ई० तक कहीं प्रकाशित नहीं हुआ था, ऐसा मि. जे. एफ फ्लीटका कहना है । उन्होंने जो इस लेखका उल्लेख या संकेत किया है वह एक पाण्डुलिपि परसे किया है। [यह लेख १५३५ ई० का है और कोल्हापुरमें पाया गया है । इसमें व वाया गया है कि कवडेगोल्लुके सन्तेय-सुदगोडेमें 'महासामन्त' निम्बदेवरसके द्वारा निर्मापित एक जैनमन्दिरके मूलनायक पार्श्वनाथ भगवानको कुछ स्थानीय महसूलोंका दान किया गया । लेखमें ७ व्यकि तथा उनके स्यानो नाम दिये हैं जिन्होंने दान किया था । यह दान कोल्हापुरकी रूपनारायण 'वसदि के आचार्य श्रुतकीर्ति त्रैविधदेवके लिये किया गया था। इस लेखमें 'कुण्डिपट्टन' नामके नगरका उल्लेख है। इस नगरके नामले देशका नाम भी वही पड गया था।] [IA, XXIX, P 280, .]

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