Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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३९८ जैन-शिलालेख-संग्रह ..............
.............." ""दनुजनिष्ट-शिष्ट-जन-कम्प-कुजं सदनोपशोभिताभ्युदय-विभूतिगास्पदनुदात्त-कठाधिपनीतनेम्ब...!
......"उदितोदितं नेगळ्दनी-वसुधा-तळदोळ् निरन्तरम् ।। बम्मि-सेट्टिय वनिते।
तनगनुक्शेयेनिसि जग-। जन-सस्तुत-शील-गुण-गणाळ." ....... ...................."राजिसुतिर्दळ ॥ अवरिवर्गमगण्य-पुण्य-जनित-श्रीरायुरारोग्य-वैभव-सम्पन्-महिमौघ.... .........." ..................... .................माइतिर
प्प विळास वेरसोन्पुवेत्तनवनी-चक्र मन-गोविनम् ॥ अन्तबर म्माडिसिद बसदिय पूजा-विधान............... र्षियग्गाहार-दानकं श्रीमचालुक्य-विक्रम-कालद ४२ नाल्वत्तेरडनेय मनुमथ-संवत्सरदुत्तरायण-संक्र ............"पुण्यतिथियन्दु श्रीमन्-नन्निय-गङ्ग-पेमाडि-देवनिन्द कुडल पडेटु मिसेट्टियर म्मेषपाषाण-गच्छाम्बर-शरच्चन्द्र 'शुभकीर्ति-देव-भट्टारकर कालं कर्चि धारापूर्वकं सर्व-नमस्य सर्व-बाधापरिहारवागि बसदिगे को वृत्ति (भागेकी ५ पक्तियोमें दान और सीमाकी चर्चा है तथा अन्तिम वाक्य. पद्धति)
बहुभिर्वसुधा दत्ता राजमिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ।।
(हमेशाके अन्तिम श्लोक) [इस लेखमे न० २७७ शि० ले० के अनुसार ही गङ्ग राजाओंकी वंशा. चली तथा क्राणुर-गच्छके सिंहनन्दी भादि आचार्योंकी परम्परा दी हुई है। अन्तमे जिस बात के लिये यह लेख लिखवाया गया है वह यह है