Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 396
________________ हन्तुरका लेख आवङ्गमात्र धनमुम- । नीव महा-दानि युद्ध - विजयमना-मा- | देवङ्गमयददटर | देवं बल्लाळ - देवनप्रतिम-बल ॥ अन्तेनिसि नेगर्द श्रीमत्कुमार बल्लाळ देवनग्रानुजे हरियब्बरसियेन्तप्पळेन्दडे सरस्वतियेन्ते सत्- कळान्विते । सीतेय ते विनीते । सुसीमा - देवियन्ते सुशीले रुग्मिणियन्ते गुणाग्रणि । अनल्प-कल्प-शाखानीकदतनून-दान-जनित-जन-मनः पुळकेयुं । भगवदर्हत्-परमेश्वर-चरण-नख-मयूख -लेखा-विळसित-ललाट-पळकेयुम् । चातुर्वर्ण--वणितागण्य-पुण्यजन-शिखा-मणियुम् । सम्यक्त्व - चूडामणियुमेनिसि । वृत्त ॥ धरेयोळनन्त- दिव्य-यति-सन्ततिगन्नमनाद-मीतियिम् । वरे पलरञ्जलेम्बभय-वाक्यमनातुररागि वेर्णव । इरदे शरीर-रक्षणमनोदल शास्त्रमनी पेम्पिनम् । हरियवे ताब्दिदळू पर-हितोक्त- चतुर्विध-दान-शक्तियम् ॥ पर-वळ-दानव-संहा- । रारुण जळ -लिप्त खर्गनुन्नततेजम् । वर - विबुध-विभव विभवं । हरि- कान्ता- कान्तनेसदपं विभुसिंग ॥ हरि-कान्तेयुमी - कान्ते । दोरेगे वरल कोरळेम्व निम्मदद गुणोत्करमनोळकोण्डु हरियवे । पर हितदिं धरेयोदे जसम तळेदऴ् || | अन्तेनिसि नेगर्द श्रीमतु-हरियल- देवियर गुरुगळे तप्परेन्दडे श्रीमूलसंघद कोण्डकुन्दान्त्रयद डेसिग - गणद पुस्तक - गच्छद श्री मांघगन्दि- सिद्धान्त - देवर शिष्यरु । वृ ॥ मोहान्धकार-रिपु-शाक्य- नवोत्पळारि‍ । चार्वाक-चन्द्र- किरण प्रतिनाश- हेतुस् । सदू -भव्य-वारिज- महोत्सव तेज- राजिर । उज्जृम्भितो जगति गण्डविमुक्त-भानुः ॥

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