Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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जैन-शिलालेख संग्रह दिया हुआ है । विक्रमसिंहने उनको 'श्रेष्टि' की पदवी दी थी और इन्हींम से एक-साधु दाहड़-मन्दिरके मंन्यापकोमेसे है । अपि और टाइट दोनों ही जयदेव और उसकी पत्नी यशोमतीके पुत्र, तथा श्रेष्ठी जासूफके नाती थे। जासूस जायसवाल वंशके ये जो 'जायन' (एक गहर) से निकला था।
३९-४५ की पक्तियोमे कुल जन मुनियोका वर्णन है । उनमने अन्तिम विजयकीर्ति थे। उन्होने न केवल इस शिलालेसका लेप ही तैयार किया था, वरिक अपने धार्मिक उपदेशसे लोगोको इस मन्दिरके निर्माण के लिये भी, जिसका कि यह शिलालेय है, प्रेरणा की थी । वल्लेखित मुनियोंमसे सर्वप्रथम गुरु देवसेन है। ये लाट-बागट गणके तिलक थे। उनके शिष्य कुलभूषण, उनके मिष्य दुर्लभसेन सूरि हुए । उनके बाद गुरु शान्तिपेण हुए, जिन्होंने राजा भोजटेवकी गभामें पंडित गिरोरव अंबरसेन आदिके समक्ष सेकडों वादियोको हराया था। उनके शिष्य विजयकीनि थे।
मन्दिरके सम्यापको से पंक्तियाँ ४८-५१ उनका नामोलेप इस प्रकार करती है. साधु दाहड़, कृकेक, मूर्पट, देवधर, महीचन्द्र, और रक्ष्मण ! इनके अलावा दूसरोने भी जिनका नाम यहाँ नहीं दिया गया है, इस मन्दिरकी स्थापनामें मदद दी थी।
गद्यभागमे (५४ वीं पक्तिसे शुरू होनेवाला) कथन है कि महाराजाधिराज विक्रमसिंहने मन्दिर तथा इसकी मरम्मतके लिये तथा पूजाके प्रवन्धके लिये प्रत्येक गोणी (अनाजकी') पर एक विशोपक' कर लगा ढिया था तया महाचक्र गॉवमे कुछ जमीन भी दी थी तथा रजकद्रहमें कुमासहित बगीचा भी दिया था। दिए जलाने के लिये तथा मुनिजनोके शरीरमें लगानेके लिये उन्होने कितने ही परिमाणमे (ठीक ठीक परिमाण जाना नहीं जा सका, शिलालेखके शब्द है 'करवटिकाद्वय') तेल भी दिया।
अन्तमें आगामी राजामोको भी उपर्युक्त दानको चालू रखनेकी प्रार्थना करनेके बाद, ६०-६५ पक्तियोम इस प्रशस्तिके लिसनेवाले और इसको खोदनेवाले दोनोंका नाम दिया है । लिखी जानेकी तिथिका उल्लेख करके यह शिलालेस समाप्त हो जाता है । )
[F Kielhorn, EL, II, n° XVIII (p. 237-240).]