Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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दानसालेका लेख पत्थरका ऊपरी हिस्सा दृष्टिसे मोझल हो गया है । लेकिन लेखकी तीन पंक्तियां द्रष्टव्य हैं। इनमे सोमवार दिन तथा विषु सवत्सरके, जो कि चालुक्य विक्रम-कालका २६ वाँ वर्ष अर्थात् , शक १०२३ (=११०१ ई०) होता है, श्रावणमासके शुक्लपक्षकी एकादशीका काल निर्दिष्ट है । पाषाणके दूसरे हिस्सेमें भगवान जिनेन्द्रकी मूर्ति है जो कि पद्मासन है और जिसके दोनो तरफ यक्षिणियाँ चवर ढोर रही है । पापाणका शेष हिस्सा दृष्टिमे नहीं आता है। लेकिन उसमें अव्यावोळे (ऐहोले) के पाँचसौ महाजनोंद्वारा दिये गये दानका उल्लेख है। ]
[इ० ए०, ९, पृ० ९६, नं० ६९ ]
२४८ दानसाले-संस्कृत तथा कन्नड
[शक १०२५ ई० ११०३] [दानसाळेमें, दक्षिणकी ओर, वस्तिके पासके एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ।। खस्ति समस्त-भुवनाश्रय श्री-पृथ्वी-बल्लभ महाजाराधिराज परमेश्वरपरम-भट्टारकं सत्याश्रय-कुळ-तिळदा चालुक्याभरण श्रीमत्-त्रिभुवनमल्लदेवर विजय-राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतार सलत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीवि ॥ समधिगत-पञ्च-महा-शब्द महा-मण्डलेश्वरनुत्तरमधुराधीश्वर पट्टि-पोम्बुर्चपुर-बरेश्वरम्महोग्र-वंशललाम पद्मावतीलब्ध-वर-प्रसादासादित-विपुळ-तुळा-पुरुप-महादान-हिरण्यगर्भ-त्रयाधिक दान वानर-ध्वज मृगराज-लाञ्छन-विराजितान्वयोत्पन्न बहु-कळा-सम्पन्न शान्तर-कुल-कुमुदिनी-शशाङ्क-मयूखाड्डर रिपु-मण्डलिक-पतग-दीपाकुर तोण्ड-मण्डळिक कुळाचळ-वज्रदण्ड विरुद-मेरुण्ड कन्दुकाचार्य मन्दर-धैर्य कीर्ति नारायण शौर्य-पारायण जिन-पादाराधकं परवळ