Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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जैन-शिलालेख-संग्रह विजयादित्य और युद्धमल्लको हराकर या देशनिकाला देवर व्यवस्था एवं शान्तिके स्थापनमे सफल हुआ।
उल्लिखित दान उत्तरायणमें (प० ५४) किया गया था। दानपान एक जिनमन्दिर था, जो धर्मपुरी (श्लोक १७) के दक्षिणमे तथा यापनीयसबके एक मुनिके अधिकारसे था । इसकी स्थापना 'कटकराज' (५०५४) दुर्गराज (को०१६) ने की थी और उन्हींके उपनामसे वह कटकाभरणजिनालय (शो० १७ तथा प०५३) कहलाया। उसकी प्रार्थना पर (प. ५४) ही दान किया गया था, और दानके वर्णनका भाग उसके कुटुम्बकी वंशावलीके वर्णनसे शुरू होता है । कहा गया है कि उसके पूर्वज पाण्डुरंगने कृष्णराज (को०१५) के निवासस्थान किरणपुरको जला दिया था, और वदनुसार वह विज्यादित्य तृतीयका कोई सैनिक अधिकारी होना चाहिये। उसके पुत्र निरवद्यधवल्को 'क्टकराज' का पट्ट दिया गया था (पं०१४)। उसका पुत्र 'क्टकाधिपति' विजयादित्य (प० ४५) था, और उसका पुत्र दुर्गराज (श्लो० ६६) था।
दान की गई चीज मलियपूण्डि (प० ५५) नामका एक छोटा गाँव था, यह कम्मनाण्ड (५० ४२) जिलेमें था । इसकी सीमाए पंक्ति ५६ मे दी गई है। उत्तरकी सीमा धर्मधुरमु (धर्मपुरी) के दक्षिणसे यह जिनालय था।]
[ El, IX, n° 6]
१४४ कलुचुम्वरू (जिला मत्तीली)-संस्कृत तथा तेलुगू। [विना कार निर्देशका (ई० सन् ९४५ से ९७० के लगभग)]
ओ खस्ति श्रीमता सकलभुवनसस्तूयमानमानव्य-सगोत्राणां हारिति-पुत्राणा कौशिकीवरप्रसादलब्धराज्यानाम्मातृगणपरिपालितानां खामिमहासेनपदानुष्याताना भगवन्नारायणप्रसाढसमासादित-वर-वराहलाञ्छनेक्षणक्षणवशीकृतारातिमण्डलानामश्वमेधावभृतस्नानपवित्रीकृतवपुषं चालुक्यानां कुलमलकरिप्णोस् सत्याश्रयवल्लभेन्द्रस भ्राता [1]