Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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कापुरका लेख
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चङ्कापुर- कन्नड
[ मन्मथ संवत्सर शक ९७७ = १०५५ ई० ]
[ इस लेखका परिचयमात्र मिलता है, लेख नहीं । बकापुर धारवाद जिलेके वर्त्तमान शिग्गौम या बकापुर तालुकेसे दक्षिण-पश्चिम छह मील पर है ।
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यहाँके सारे लेख किलेमें है । यह लेख एक दीवालके सहारे है जो कि पूर्वकी तरफसे किलेमे घुसते समय दाहिने हाथ की तरफ़ है । एक विशाल चिकने पत्थरपर ५९ पक्तियोका यह एक लेख है, हर एक पंक्ति में करीव ३७ अक्षर पुरानी कनडी लिपि और भाषामे हैं । शिलालेखका अधिकांश अच्छी स्थिति है; लेकिन चौथी पक्ति जानबूझकर मिटा दी गई है और उस गिलापर दरारें पढ़ी हुई है जिनसे ऐसा मालूम पडता है कि यदि इस शिलाको किसी सुरक्षित स्थानपर ले जानेका प्रयत्न किया जायगा तो वह टूट जायगी । शिलाके अग्रभागके चिह्न चालाकीसे मिटा दिये गये हैं; लेकिन निम्नलिखित फिर भी कुछ चिह्न मिलते है - मध्यमे लिङ्ग है; इसके दाई ओर एक बैठी हुई या घुटने टेकी हुई मूर्त्ति उसके ऊपर सूर्य है और इसके बाहरकी ओर एक गाय और बछड़ा है, और इसके बाईं ओर एक स्थानापन्न पुरोहित या पुजारी, उसके ऊपर चन्द्रमा और उसके बाहर बसवकी मूर्ति बनी हुई है । लेखक काल शकवर्ष ९७७ ( १०५५ - ६ ई० ), मन्मथ 'सवत्सर' दिया हुआ है, जब कि चालुक्य राजा गङ्गपेमनडि-विक्रमादित्यदेव, जो कि त्रैलोक्यमल्लका पुत्र; कुवलालपुरका अधीश्वरः नन्दगिरिका स्वामी, और जिसके मुकुटमे कुछ हाथीका चिह्न था, गङ्गवाडि ९६००० और बनवासि १२००० पर शासन कर रहा था, तथा जब कि महाप्रधान हरिकेसरीदेव, जो कादम्ब सम्राट् मयूरवम्मका कुलतिलक था, उसके अधीन बनवासि १२००० पर शासन कर रहा था । हरिकेसरी देवकी उपाधियाँ अधिकतर उमी तरकी हैं जैसी कि अन्य कादम्ब राजमोकी । लेखमे कुछ भूमिके दानका उल्लेख है । यह भूमि निडगुन्दगे बारह, की थी जो पानुङ्गल ५०० का एक 'कम्पण' था । यह भूमि दान एक