Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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जैन-शिलालेख-संग्रह ८० सामान्योऽयं धर्म-सेतु नृपानां काले काले पालनीयो भवद्भि
सर्वाने८१ तान् भाविनः पार्थिवेन्द्रो (न्द्रान्) भूयो-भूयो याचते रामभद्रः ॥
बहुभिर्वसु८२ धा भुक्ता राजमिस्सगरादिभि [:] यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य
तस्य तदा फलम् ॥ ८३ सुल्घाटवी-सप्तति-मुख्य-सून्द्यामचीकर जैन-गृहं प्रसिद्ध पद्-ग्रामणी८४ ष्टि-विधान-पूर्व श्री दीवक()म्या जगदेकरम्भा । (1)
[J. F Fleet, EI, III, n° 25, f, S, t et tr]
भावार्थ [यह शिलालेख अप्रेल, १९९२ ई० मे जे. एफ फ्लीटके देखनेमे आया । उन्होंने ही इसे, सबसे पहले, एपिग्राफिआ इण्डिका, जिल्ट ३, मे (पृ. १५८-१८४) छपाया । यह उन्हे सूदीके एक निवासीसे तान्त्रपन्नों (Plates) पर मिला।
इस शिलालेखमें उस पच्छिमी गंग युवराज वृतुगमा उल्लेख है जिसने चोलराजा राजादित्य और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीयके बीचमें ९४९ -५० ई० में या इससे पहले हुए युद्धमे चोल राजा राजादित्यको मार डाला था। इस अभिलेखका उद्देश्य उस जमीनके दानका लेखन है जो उसने अपनी पल्लीद्वारा सून्दी, यानी सूदीमे निर्माण कराये गये जैनमन्दिरको दी थी। उसकी पत्नी का नाम दीवळाम्बा था। ग्रह लेखन ( Record ) बनावटी
इस लेखपरसे फलित पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती पच्छिमी गंगोकी वंशावली इस प्रकार है
१'अचीकर जैन' पढ़ो।