Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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मूलगुण्डका लेख
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त्तरे संप्रगते दुन्दुभिनामनि वर्षे प्रवर्त्तमाने []] जनानुरागोत्कर्षे श्रीकृष्णवल्लभनृपे पाति मही विततयासि सकला तस्मात् पालयति महाश्रीमति विनयाम्बुधिनाम्नी धवळविपय सर्व [[] तस्मिन् मुळगुन्दाख्ये नगरे वरवैश्यजातिजात (त.) ख्यात चन्द्राय॑स्तत्पुत्रश्चिकार्यों चीकर (रत) जिनोन्नतभवन तत्तनयो नागार्यो नान्ना [10] तस्यानुजो नयागमकुशल अरसार्यो दानादिप्रोद्युक्तसम्यवसक्तचित्तव्यक्त [1] तेन दर्शनाभरणभूषितेन पितृकारितजिनालयाय चन्दिकवाटे शेनान्वयानुगाय नरनरपतियतिपतिपूज्यपादकुमारशे(से)नाचार्यमी (मे) खवीरशे (से)नमुनिपतिशिप्यकनकशे (से) नसूरिमुख्याय कन्दवर्ममाळक्षेत्रे ए (ऐ) (छ) कमणिवकनकुळाये ( य्ये ) (H) क. 'बम्मानाहस्तात्सहस्रबल्लीमात्रक्षेत्रं द्रव्यसिन्दु (बु) ना गृहीत्वा नगरमहाजनविदेश दत्त [1] तजिनाल्याय त्रिशतपष्टिनगरै चतुर्भिः श्रेष्ठिभि. पिळ्ळग (छे ) क्षेत्रे सहत्रावल्लीमात्रक्षेत्र दत्त []] तजिनभवनाय विंशतिमहाजनानुमताद्वेलचिकुलब्राह्मणैश्च नन्कन्दवर्ममालक्षेत्रे सहस्रवल्लीमात्रक्षेत्र दत्त [I] एवं त्रीण्यपि नागबल्लिक्षेत्राणि सर्वावाधा
[यह शिलालेख जिस पत्थरके टुकडेपर है वह धारवाड जिलेके डम्बळतालुकाके मूलगुण्डकी दीवालमें लगा हुआ है। इस टुकड़ेका गेप अश अभीतक नहीं मिला है। मगर सौभाग्यसे इसी बचे हुए टुकड़ेमें लेखका महत्त्वपूर्ण भाग आ जाता है । लुप्त भागमें सिर्फ थोडे-से अन्तिम वे ही श्लोक हैं जिनमें लेखके रक्षण और मिटानेपर क्रमशः अनुग्रह (पुण्य) और शापका वर्णन मिलता है । लेख पुराने टाइपके प्राचीन कनड़ीके अक्षरोसे खुदा हुआ है। ये प्राचीन कनड़ीके अक्षर गुफा-वर्णमाला (Cavealphabets) से बहुत कुछ मिलते-जुलते है।