Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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जैन-शिलालेख संग्रह जयत्यहँत्रिलोकेश. सर्वभूतहितकरः । रागारिहरोनन्नोनन्तनानगीश्वरः ॥
[इ० ए०, जिल्द ७, पृ० ३३-३५, न. ३५] [यह दानपत्र कदम्बोके धर्ममहाराज श्रीकृष्णवर्माके प्रियपुत्र 'टेववर्मा' नामके युवराजकी तरफसे लिखा गया है और इसके द्वारा विपर्वत' के ऊपरका कुछ क्षेत्र अर्हन्त भगवानके चैत्यालयकी मरम्मत, पूजा और महिमाके लिये 'यापनीय' संघको दान किया गया है।
पत्रके अन्तमें इस बानको अपहरण करनेवाले और रक्षा करनेवालेके वास्ते वही क्सम दिलाई है अथवा वही विधान किया है जैसा कि ९७ नम्बरके दानपत्रके सम्बन्धमें पहले बतलाया गया है। वही चारों 'उकं च' पद्य मी कुछ क्रममग माय दिये हुए हैं और उनके बाद दो पद्योसे इस दानका फिरसे स्तुलासा दिया है, जिममें देववर्माको रणप्रिय, दयामृतसुखास्वादनसे पविन्न, पुण्यगुणोंका इच्छुक और एकवीर प्रकट किया है । अन्तमें अर्हन्तकी स्तुतिविषयक प्राय वही पद्य है जो ९७ नम्बरके दानपत्रके शुरूम दिया है । इम पत्रमें श्रीकृष्णवर्मा 'अश्वमेध' यज्ञका कर्ता और शरद ऋतुके निर्मल आकाशमें उदित हुए चद्रमाके समान एक छत्रका धारक, अर्थात् एकछत्र पृथ्वीका राज्य करनेवाला लिखा है।]
पूर्वके न० ९७,९८ व इस दानपत्रपरसे निम्नलिखित ऐतिहासिक व्यक्तियोंका पता चलता है.~
१ स्वामिमहासेन-गुर। २ हारिती-मुख्य और प्रसिद्ध पुरुष । ३ शान्तिवर्मा-राजा। ४ मृगेश्वरवर्मा-राजा। ५ विजयशिवमृगेशवर्मा-महाराजा । ६ कृष्णवर्मा-महाराजा। ७ देववर्मा युवराज । ८ दामकीर्ति-मोजक। ९ नरवर-लेनापति।