Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
View full book text
________________
देवगिरिका लेख [यह दानपर परम्रो धर्ममहाराज 'श्रीविजयशिवमृगेश वर्मा' की तरफसे लिया गया है और इसके लेगक है 'नरपर' नामके सेनापनि । लिसे जानेका समय शतुधमंयासर, पी (नु) का आटा पक्ष और पौर्णमासी तिथि है। इस पनके द्वारा काला' नामक ग्रामको तीन भागोंमे विभाजित करके इस तरापर यौट दिया है कि पहला एक भाग तो अईन्चाला परमपुप्पल स्थाननियामी भगवान आईन्महाजिनेन्द्रदेवताके लिये, दुसरा भाग
आरमोक्त मर्माचरणसे तरपर वेताम्बरमहाश्रमणमंधके उपभोगके लिये और तीसरा भाग निग्रन्थमहाश्रमणसंघके उपभोगके लिये । साथ ही, देवमागके सम्बन्धम या विधान किया है कि वर धान्य, देवपूजा, बलि, घर, देवकर्म, पर, भग्नफिया प्रवर्तनादि भोपभोगके लिये है, और यह स्य न्यायलब्ध है । अन्तमें इस दानके अभिरक्षकको यही दानके फलका भागी और पिनासकको पच महापापोंसे युक्त होना यतलायाहं, जैसाकि नं० ९० के दानपत्र में उलेखित है। परतु यहाँ उन चार 'उक्त च' लोकोमेंसे सिर्फ पहलेका एक श्लोक दिया है जिसका यह अर्थ होता है कि, इस पृथ्वीको सगगदि यहुतले राजाओने भोगा है, जिस समय जिस-जिसकी भूमि होती है उस समय उसी-उसीको पल लगता है।
इस परम 'चतुर्य' संवरपरके उलेखसे यद्यपि ऐसा भ्रम होता है कि यह दानपन भी उन्हीं मृगेश्वरवर्माका है जिनका उल्लेस पहले नम्बरके पत्र (जि० ले. नं. ९७) में भयात् जिन्होने पूर्वका (न. ९७) दान. पत्र लिखाया था और जो उनके राज्यके तीसरे वर्पमे लिसा गया था, परंतु यह भ्रम ठीक नहीं है। कारण कि एक तो 'श्रीमृगेश्वरवर्मा' और 'श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा' इन दोनो नामोंमे परस्पर बहुत बडा अन्तर है; दूमरे, पूर्व के पत्र में 'भारमन. राज्यस्य तृतीये वर्षे पीप सवत्सरे' इत्यादि पदोके हारा जैसा स्पष्ट उल्लेख किया गया है वैसा इस पत्रमें नहीं है। इस पत्रके समय-निर्देशका ठग बिलकुल उससे विलक्षण है । 'संवत्सर चतुर्थ., वर्षा पक्षः अष्टम, तिथि पौर्णमासी,' इस कधनमे 'चतुर्थ' शब्द संभवत ६० संवत्सरोमेसे चौथे नम्बरके 'प्रमोद' नामक संवत्सरका द्योतक मालम होता है, तीसरे, पूर्वपन्नमें दातारने बड़े गौरवके साथ अनेक विटोपोंसे युक्त जो अपने 'काकुत्स्यान्वय' का उल्लेख किया है और साथ ही अपने पिताका नाम