Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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जैन-शिलालेख संग्रह
चतुर्थ पत्र; दूसरी ओर। [२२] या नगरे विशाले ॥ स्थित्यानया पूर्वनृपानुजुष्टया यत्ताम्र
पत्रेषु नि[ २३ ] बद्धमादौ धर्माप्रमत्तेन नृपेण रक्ष्य संसारदोष प्रविचार्य्य [२४] बुद्ध्या [11] बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजमिस्सगरादिभिः
यस्य यस्य [२५] यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ खदत्ता परदत्ता वा यो हरेत
पञ्चम पत्र [२६] वसुन्धरा पाष्ट वर्षसहस्राणि नरके पच्यते भृशम् || अद्भि
दत्त त्रिभि[२७] भुक्त सद्भिश्च परिपालितम् एतानि न निवर्तन्ते पूर्वराज
कृतानि च [] [२८] यस्मिञ्जिनेन्द्रपूजा प्रवर्त्तते तत्र तत्र देशपरिवृद्धि. [२९] नगराणा निर्भयता तद्देशवामिनाञ्चोजी ।। नमो नमः [1]
[ई० ए० जिल्द ६, पृ० २५-२७, न. २२] [यह लेख जैनधर्मका 'अष्टाह्निका' नामका उत्सव मनानेके लिये रविवा और अन्य लोगो द्वारा दिये गये दानो और हुक्मोका उल्लेख करता है। इसमे कदम्बोके राजा काकुस्थ (काकुत्स्थ )वर्मा का, उसके बाद शान्तिवर्मा, तत्पश्चात् श्री मृगेश (वर्मा) का और अन्तमे रविवर्माके दानका वर्णन है। जिस गांव का दान दिया गया उसका नाम है पुरुखेटक ।
१ मि० राइस इसको 'पद्दभिश्च प्रतिपालितम् ' पढते है और उसका अर्थ 'छ: पीढियोंतक जानेवाला' दान करते हैं।