Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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जैन-शिलालेख संग्रह अनुवाद-वर्ष ९८ की शीतऋतुके १ ले महीनेके ५ वें दिन, कोट्टिय गण, उचनगरी (उच्चानागरी) [शाखा] . .. .
[ER, II, n° XIV, n° 243
मथुरा--प्राकृत।
[विना कालनिर्देशका] १. नमो अरहतान सिहकस वानिकस पुत्रेण कोशिकिपुत्रेण २. सिहनादिकेन आयागपटो प्रतियापितो आरहतपुजाये [10] अनुवाद-~अर्हन्तोको नमस्कार हो । वानिक सिहक (सिंहक) के पुन तथा किसी कोशिकी (कौशिकी मा) के पुत्र सिंहनादिक ( सिंहनन्दिक?) के द्वारा एक आयागपटकी प्रतिष्ठा अर्हन्तोकी पूजाके लिये
की गई।
[DI, II, n° XIV, u° 30]
७२ मथुरा-प्राकृत भग्न।
[विना कालनिर्देशका] नमो अरहताना शिवघोपिक स भरि [ या ] ."ना'""ना " अनुवाद -अर्हन्तोको नमस्कार। शिवघोषककी । भार्या
[13, II, n° XIV, n° 31]]
मथुरा-प्राकृत ।
[विना कालनिर्देशका] प. १. नमो अरहतान [मल] "णस धितु भद्रयशस वधुये भद्रनदिस भयाये
२. अ [चला ]ये आ[ या ]गपटो प्रतियापितो अरहतपुजाये ।