Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दक्षिणकूलग-गंगा के दक्षिण तट पर रहने वाले । उत्तरकूलग-गंगा के उत्तर तट पर रहने वाले । संखधमक-शंख बजाकर भोजन करने वाले, जिससे भोजन करते समय कोई
दूसरा व्यक्ति न आ जाय । कूलधमक-किनारे पर खड़े होकर आवाज करके भोजन करने वाले । मियलुद्धय-पशुभक्षण करने वाले। हत्थितावस--जो हाथी को मारकर बहुत काल तक भक्षण करते रहते हों।
इन तपस्वियों का कहना है कि वे एक हाथी को एक वर्ष में मारकर केवल एक ही पाप का संचय करते हैं और इस तरह.
जीवों के मारने के पाप से बच जाते हैं।' उड्डुंडक-जो दण्ड को ऊपर करके चलते हों। दिसापोक्खी-जो जल द्वारा दिशाओं को सिंचित कर पुष्प, फल आदि
बटोरते हों। वक्कवासी-वल्कल के वस्त्र पहननेवाले ।
सूत्रकृतांग ( २, ६) में हस्तितापसों का उल्लेख है। टीकाकार के अनुसार बौद्ध भिक्षुओं को हस्तितापस कहा गया है । ललितविस्तर (पृ० २४८)
में हस्तिव्रत तापसों का उल्लेख है। २. आचारांगचूर्णि (५, पृ० १६९) में उड्डंडा, बोडिय और सरक्ख
साधुओं को शरीरमात्र-परिग्रही और पाणिपुट-भोजी कहा गया है। ३. भगवती (११-९) में हस्तिनापुर के शिव राजर्षि की तपस्या का वर्णन
मिलता है जो दिशाप्रोक्षक तपस्वियों के पास जाकर दीक्षित हो गया था। वह भुजाएँ ऊपर उठाकर छमछ? तप करता था। प्रथम छट्ठम तप के पारणा के दिन वह पूर्व दिशा को सिंचित कर सोम महाराज की वंदनापूजा कर कंद-मूल-फल आदि से अपनी टोकरी भर लेता । तत्पश्चात् अपनी कुटी में पहुँचकर वेदी को लीप-पोत उसे शुद्ध करता और फिर गंगास्नान करता। उसके बाद दर्भ, कुश और बालू से दूसरी वेदी बनाता, मंथनकाष्ट द्वारा अरणि को घिसकर अग्नि जलाता, मधु, घी, और चावलों द्वारा अग्नि में होम करता, और चरु पकाकर वइस्सदेव (अग्नि ) की पूजा करता । तत्पश्चात् अतिथियों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करता । फिर वह दूसरी बार छमछट्ठ तप करता । इस बार दक्षिण दिशा के अधिपति यम की पूजा करता। तीसरी बार पश्चिम दिशा के अधिपति वरुण और
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