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पापका भान।
पापका भान । ( महात्मा केशवचंद्रसेनकी डायरीसे)
मे रा हृदय निरन्तर यही पुकारता रहता है कि मैं
पापी हूँ, मैं पापी हूँ। दो पहरको, शामको, हर समय जबतक कि मैं जागता रहता हूँ तबतक
इस पापके भानको मैं दूर नहीं कर सकता । संसारके शब्दकोषमें चोरी, लूटमार आदि पाप कहे जाते हैं, पर मेरे शब्दकोषमें पापका अर्थ हृदयका काँटा, मनकी पीडित दशा और दुर्बलता है। पापी होनेकी कल्पनाको भी मेरा मन पाप समझता है । पापमय बर्तावको ही पाप मानकर मैं सन्तुष्ट नहीं हुआ; किन्तु पापी बननेकी योग्यताका होना, पापका पात्र होना यह भी मेरे मनको कष्ट पहुँचाता है। जब अन्तरात्माका प्रकाश पहली ही बार मेरे हृदयपर पड़ा, तब प्रमाद, जड़ता, निर्बलता और अनेक प्रकारकी विषयाभिलाषायें आदि छोटे बड़े पापोंको मैंने देखा । ये सब अनिष्टके मूलकारण वहाँ गुप्तरूपसे छुप रहे थे और यदि अन्तर त्माका प्रकाश उनपर पहले पड़ा हुआ होता तो वे इस समय देख भी न पड़ते । जबतक यह स्थूल शरीर है तब तक काम क्रोधादिके कारण भी हैं। मैं यह नहीं कहता कि मनुष्य पापमें ही पैदा हुआ है, किन्तु जब मनुष्यकी प्रवृत्ति
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