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विविध-प्रसङ्ग |
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यह कि किसीकी प्राचीनता या नवीनताके सिद्ध होने न होनेसे भी इन झगड़ोंके अन्त होनेका कोई सरोकार नहीं है ।
तब इस मुकद्दमेबाजीका अन्त कैसे हो ? इसके उत्तमें हम यह प्रेरणा नहीं करते हैं कि दिगम्बरी श्वेताम्बरी आपसमें मिलकर एक हो जायँ, या तीर्थोंका मानना ही छोड़ दिया जाय । ऐसा होना संभव नहीं और इष्ट भी नहीं । अन्त होनेका उपाय केवल यही है कि दोनों सम्प्रदायवाले इसके अन्त करनेका निश्चय कर लें और समझ लें कि इसीमें जैनसमाजका कल्याण है। यदि दोनों ही समाजके मुखिया और मुकद्दमेबाजीके सूत्रधार यह समझ लें अथवा वे न समझें तो सारा समाज उन्हें समझने के लिए लाचार कर दे, तो तीर्थोंकी मुकद्दमेबाजीका अन्त शीघ्र ही हो सकता है । यहाँ यह अवश्य कहना पड़ेगा कि इसके अन्त करने के विचार दोनों ही सम्प्रदायवालों के होंगे तभी कुछ सफलता होगी, एकके विचारोंसे कुछ न होगा ।
यदि कभी ऐसी बातोंकी चर्चा की जाती है तो मुखियोंकी ओरसे प्रायः यह उत्तर मिलता है कि हम क्या करें ? श्वेताम्बरी लोगोंने बहुत सिर उठाया है, वे हमें दर्शन पूजनतककी मनाई करते हैं, तब हम मुकद्दमें न लड़ें तो क्या करें ? अथवा सन्धिका प्रस्ताव हम ही क्यों करें ? हम क्या किसी बातमें उनसे कुछ कम हैं ? वे तो सन्धि करना ही नहीं चाहते । कहना नहीं होगा कि श्वेताम्बरियोंके मुखिया भी इसी प्रकारका उत्तर देते हैं और वे दिगम्बरियों को दोषी ठहरते हैं । पर वास्तवमें देखा जाय तो निर्दोष
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