Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 1
________________ जैनहितैषी । श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात्सर्वज्ञनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ ११ वाँ भाग ( श्रावण, भाद्र, वीर नि०सं० २४४११ अंक १०-११ जो पर्युषणपर्व अथवा पवित्र जीवनका परिचय | धर्म जीवनको उच्च बनाता है वही धर्म मुझे मान्य है । धर्मके जो कार्य, जो क्रियायें और जो भावनायें जीवनको ऊँचा बनानेके आशय से वञ्चित हैं वे चाहे जैसे प्रतिष्ठित पुरुषकी बतलाई हुई क्यों न हों - स्वयं ब्रह्मा भी उनके उपदेष्टा क्यों न हो, उन्हें माननेके लिए मैं तयार नहीं । धर्मकी जो आज्ञायें आरोग्यरक्षामें सहायक हों, जो धार्मिक क्रियायें मनुष्यको संसारके प्रति उसके जो कर्तव्य हैं उनके पाल - नेमें यथेष्ट बल-प्रदान करती हों, और जो धार्मिक भावनायें आधिव्याधि-उपाधिके समुद्रमें पड़े हुए मनुष्यको तैरनेकी कला सिखलाती ह्नों, वे आज्ञायें, क्रियायें और भावनायें मुझे मान्य हैं और प्रत्येक विचारशील मनुष्यको मान्य होनी चाहिए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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