Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 12
________________ जैनहितैषी - या स्तोत्रोंकी खुशामदसे प्रसन्न होकर स्वर्ग या मोक्ष दे देता हो, या अमुक अमुक कोरी भावशून्य क्रियाओंके करनेसे रीझकर सिद्धशिलाका निवास पारितोषिक में दे देता हो । जब कोई देनेवाला है ही नहीं तब यही मानना आधिक युक्तियुक्त है कि एक जन्ममें जैसी इच्छायें, विचार और भावनायें होती हैं उन्हींके अनुसार जीवको नया स्वरूप प्राप्त होता है । देव स्थूल ( औदारिक) देहके बन्धनसे रहित एक प्रकारके मनुष्य ही हैं, इसलिए जहाँ दैवी जीवनका उपदेश दिया जाय वहाँ उच्च मानवजीवन प्राप्त करनेका उपदेश समझना चाहिए । I ५८४ तब उच्च मानव जीवनके अंग कौन कौन हैं ? उच्चतम मनुष्य भगवान् महावीरने दान, शील, तप और भावना ये चार अंग उच्च जीवन के बतलाये हैं । उत्तमक्षमादि दश धर्म भी इन्हीं में गर्भित हैं । इन चार अंगोंका नामोच्चारण यद्यपि हम प्रतिदिन किया करते हैं; परन्तु इनका रहस्य बहुत कम लोग समझते हैं और इसीलिए जैनोंका व्यवहार अथवा जीवन शुष्क, अनुदार और अनेक अंशोंमें घृणोत्पादक दिखलाई देता है । इन चार अंगोंसे उच्च मानवजीवनकी दीवाल खड़ी होती है और इन्हीं चार अंगोंकी कसरत पर्युषण पर्वकी योजना की गई है । पर्युषण पर्वके समस्त कर्तव्य कर्मोंका इन्हीं चारके भीतर समावेश हो जाता है। १ तपका रहस्य और दानशीलका रहस्य जैनहितैषीके पिछले अंकोंमें निकल चुका है * जैनहितेच्छुके खास अंकसे अनुवादित । 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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