________________
जैनसिद्धान्तभास्कर।
५९७
होते हैं । ” परन्तु द्विवेदीजी इसका अर्थ करते हैं-" संसारमें जीवसिद्धि करके अकाट्य युक्तियोंसे भरी हुई संभ्रान्त वरिकेसे श्रीसमन्तभद्र स्वामीकी बातें आज सर्वत्र माननीय हो रही हैं।" बेचारे द्विवेदीजी तो ठहरे कोरे काव्यतार्थ, इसलिए वे तो समझें ही क्या कि जीवसिद्धि और युक्त्यनुशासन नामके कोई ग्रन्थ भी हैं-उन्हें तो अपना विभक्त्यर्थ करनेसे मतलब; और सम्पादक ठहरे सेठजी, उन्हें अपने सैकड़ों कामोंके मारे फुरसत कहाँ जो ऐसी बातें सोच सकें ! इसके आगेके प्रायः सभी श्लोकोंका अर्थ ऐसा ही ऊँटपटींग किया गया है।
महासेनस्य मधुरा शीलालङ्कारधारिणी ।
कथा न वर्णिता केन वनितेव सुलोचना ॥ ३४॥ इस श्लोकमें महासेन कविके ' सुलोचना कथा ' नामक काव्यका उल्लेख किया गया है, परन्तु उसे कथाका विशेषण मानकर यह अर्थ किया गया है-" सुन्दर आँखवाली स्त्रीकी सी महासेनकी विनयालंकारालंकृता कथा कौन नहीं वर्णित करेगा ? "
कृतपद्मोदयोद्योता प्रत्यहं परिवर्तिता। मूर्तिः काव्यमयी लोके रवेरिव रवेः प्रिया ॥ ३५ ॥ वरांगनेव सर्वागैर्वरांगचरितार्थवाक् ।
कस्य नोत्पादयेद्गाढमनुरागं स्वगोचरम् ॥ ३६ ॥ इन श्लोकों में पद्मपुराणके कर्ता रविषेणकी और उनकी रचनाकी प्रशंसा की गई है। इनका भावार्थ इस प्रकार है-ये बड़े ही सुंदर श्लोक हैं-" रवि ( सूर्य ) के समान पद्मोदय करनेवाली
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org