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जैनहितैषी
जिन्हें हम प्रामाणिक मानते हैं, उनमें आज कलकी जातियोंका जिक्र तक नहीं है । जातियाँ पहले थीं भी नहीं। पिछले हजार वर्षमें ही इनकी रचना हुई है, ऐसा अनुमान होता है। आदिपुराणमें जाति शब्द कई जगह आया है; परन्तु उस समय इस शब्दका अर्थ वर्तमानकी जातियोंसे भिन्न थाः
पितुरन्वयशुद्धिर्या तत्कुलं परिभाष्यते। मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते॥
-आदि० पर्व ३९, श्लो० ८५ । अर्थात् पिताकी परम्पराकी शुद्धिको कुल और माताकी परम्परा. की शुद्धिको जाति कहते हैं। परन्तु वर्तमानमें जातिका कुछ और ही रूप है । माताकी परम्परा शुद्धिसे उसका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। आजकल जो जातियाँ हैं वे ग्रामों या नगरोंके नामसे, व्यापारधंधोंके सम्बन्धसे, आचारभेदसे, तथा धर्मभेदसे बनी हैं
और नई नई बनती भी जाती हैं। ___ जिन धर्मग्रन्थोंकी इस समय हमें प्राप्ति है वे इस विषयमें बहुत कुछ उदार हैं । उनमें अनुलोमवर्णविवाहकी आज्ञा दी गई है। पहले-जातियोंकी उत्पत्तिके पहले भारतवर्षमें चार वर्ण थे-ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र । उनमें अनुलोम और प्रतिलोम विवाह होते थे जिनमेंसे अनुलोमविवाह सर्वमान्य थे। यशस्तिलक महाशास्त्रके कर्ता सोमदेवसूरि अपने नीतिवाक्यामृतके विवाहसमुद्देशमें कहते हैं:- “ आनुलोम्येन चतुस्त्रिद्विवर्णकन्याभाजना ब्राह्मणक्षत्रियविशः ।" अर्थात् ब्राह्मण, ब्राह्मण
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