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जैन जातियों में पारस्परिक विवाह।
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पारस्परिक विवाहसम्बन्ध न होनेसे क्या हानियाँ हो रही हैं, यह बतलानेके पहले हम यह कह देना चाहते हैं कि हम जातिभेदको नहीं उठाना चाहते । जैनोंमें इस समय डेडसौ या दोसौ जितनी जातियाँ हैं वे सब बनी रहें-उनके बने रहनेसे हमारी कोई हानि नहीं है। हम सिर्फ यह चाहते हैं कि सब जातियोंमें परस्पर बेटीव्यवहार होने लगे और इस तरह विवाहसम्बन्धका क्षेत्र विस्तृत हो जाय ।
१ जातियोंका क्षय-पारस्परिक विवाहसम्बन्ध न होनेसे. छोटी छोटी जातियोंका क्षय होता जाता है। ऐसी कई जातियोंका क्षय हो चुका है-उनका अब केवल नाम मात्र सुन पड़ता है और कईका हो रहा है। ऐसी जातियों में जिनमें सौ सौ पचास पचास ही घर होते हैं, विवाहका क्षेत्र बहुत ही संकुचित हो जाता है। एक तो घर ही थोड़े और फिर उनमें भी एक गोत्रके, तथा मामा-फुआ-मौसी आदिके सम्बन्धके घर; ऐसी अवस्थामें वरको कन्यायें और कन्याओंको वर मिलना कितना कठिन होना होगा, इसका अनुमान सब ही कर सकते हैं। इसका फल यह होता है बहुतसे लोग ब्याह किये बिना ही-सन्तानोत्पादन किये बिना ही मर जाते हैं, जो विवाह होते हैं वे बेजोड़ होते हैं इस कारण सन्तान दीर्घजीवी नहीं होती, कमजोर बालकोंके साथ ब्याहे जानेसे लड़कियाँ विधवा अधिक होती हैं और इस तरह थोड़े ही समयमें ऐसे जातियोंका नामशेष हो जाता है । सन् १९११ की मनुष्यगणनाकी रिपोर्टसे मालूम होता है कि जैनोंकी ऐसी ५५ जातियाँ हैं जिनकी जनसंख्या १०० से भी
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