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विविध-प्रसङ्ग।
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पच्चीस लाखकी रकम थोड़ी नहीं होती है ! इतनी बड़ी रकमसे जैनधर्म और जैनजातिकी उन्नतिके लिए बहुत कुछ किया जा सकता था।
इस मुकद्दमेबाज़ीमें हमारा केवल रुपया ही बरबाद नहीं होता है; इसके साथ ही हमारी धार्मिक हानि भी बहुत बड़ी होती है। कहाँ तो हमारे धर्मका यह उपदेश कि सारे संसारमें मैत्रीभावकी वृद्धि करो, शत्रुपर भी क्षमा करो और कहाँ उसी पवित्र धर्मके नामसे हमारा यह अपने भाइयोंसे शत्रुता बढ़ाना, कषायोंकी वृद्धि करना और शत्रुताकी ज़डको मजबूत बनानेके लिए निरन्तर प्रयत्न करना ! क्या जैनधर्मकी महती उदारता, मित्रता और मध्यस्थताकी पालना हमें इसी तरह करना चाहिए ?
और यह कहनेकी तो ज़रूरत ही नहीं है कि ये धार्मिक मुकहमें देशकी एकताको नष्ट करनेके लिए, पारस्परिक सहानुभति और सहयोगिताको नष्ट करनेके लिए कुठारके तुल्य हैं । इनके शान्त हुए बिना देशकी उन्नतिकी आशा करना नितान्त मूर्खता है। - जैनसमाजको अब रुपयेका मूल्य समझ लेना चाहिए । पहला जमाना अब नहीं रहा । इस समय हमारी जो संस्थायें हैं उनके पेट प्रायः खाली पड़े हैं, नई नई संस्थाओंकी आवश्यकतायें नजर आ रही हैं और देशकी सार्वजनिक संस्थायें भी हमसे द्रव्यकी उचित आशा रखती हैं। ऐसे समयमें यदि हम द्रव्यके सदुपयोगपर ध्यान न देंगे और इन मुकदमोंमें ही अपना सर्वस्व लुटाते रहेंगे .
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