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- जैनहितैषी
तो हमारी संस्थायें नष्ट होने लगेंगी और हममें जो थोड़ा बहुत काम हो रहा है वह भी न होगा। __ और मुकद्दमें लड़नेसे कुछ फायदा भी तो नहीं होता है। 'मरज बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दबा की' वाली बात यहाँ अच्छी तरह घटित होती है। एक मुकद्दमा तै ही नहीं होता कि दूसरा दायर हो जाता है। कभी श्वेताम्बरी हारते हैं कभी दिगम्बरी जीतते हैं । आज सम्मेदशिखरपर तो कल सोनागिरपर, परसों अन्तरीक्षपर तो तीसरे दिन और किसी तीर्थपर । इस तरह परम्परा जारी ही रहती है । गत बीस वर्षों में शायद ही ऐसा कोई समय आया हो जब दिगम्बरी श्वेताम्बरियोंका कोई न कोई मुकद्दमा किसी न किसी तीर्थपर ज़ारी न रहा हो। यदि जी खोलकर लड़ लेनेसे ही इन झगडोंका अन्त आ जानेकी आशा होती तो हम कभी शान्त होनेके सम्मति नहीं देते; परन्तु अन्त हो तब न! यदि दिगम्बरी हज़ार रुपया खर्च कर सकते हैं तो श्वेताम्बरी दो हजार खर्च करनेको तैयार हैं और श्वेताम्बर दो हज़ार खर्च करते हैं तो दिगम्बरी तीन हजार खर्च करनेकी कोशिश करते हैं । कषायभावोंकी और धार्मिक द्वेषकी भी दोनों ओर कमी नहीं है। इस विषयमें एक दूसरेसे सबाये बढ़ जानेका दोनों ही दावा करते हैं । रही यह बात कि तीर्थोपर प्राचीन स्वत्व किसका है, सो इसका निबटारा कभी होनेका नहीं । कहीं दिगम्बरियोंका स्वत्व पुराना है और कहीं श्वेताम्बरियोंका । कहीं एकका स्वत्व तो पुराना है, परन्तु वह पुराना सिद्ध नहीं कर सकता । कहीं एकका नया है; परन्तु वह मजिस्ट्रेटकी आँखोंमें धूल झोंककर नया सिद्ध कर देता है । गरज
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