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जैनजातियों में पारस्परिक विवाह ।
. इस विषयमें एक शंका यह की जाती है कि पारस्परिक विवाहसम्बन्ध जारी होनेसे पहले पहल उन जातियोंको बहुत हानि उठानी पडेगी जिनकी संख्या थोड़ी है और जो निर्धन हैं। क्योंकि उन धनिक जातियोंके लोग जिनमें कन्यायें कम हैं छोटी जातियोंपर टूट पड़ेंगे और उनकी सारी कन्याओंको हथया लेंगे । इसका फल यह होगा कि छोटी जातियोंके लड़के कुँआरे रह जायेंगे और निर्धन होनेके कारण अन्य जातिके लोग उन्हें कन्यायें देंगे नहीं । परन्तु हमारी समझमें यह शंका निरर्थक है। कारण एक तो ऐसी जाति शायद ही कोई हो जिसमें निर्धन ही निर्धन हों धनी कोई न हो; सभी जातियोंमें धनी और निर्धन पाये जाते हैं, दूसरे जिन जातियोंमें धनी अधिक हैं उनमें निर्धन भी बहुत हैं जो दूसरी जातिके निर्धनोंको अपनी लडकियाँ खुशीसे देनेका तैयार हो जायँगे । तीसरे धनी प्रायः धनियोंके ही साथ सम्बन्ध करते हैं; गरीबोंके साथ तो उस समय सम्बन्ध करते हैं, जब उम्र बहुत अधिक हो जाती है । सो ऐसे लोगोंको तो रुपयोंके जोरसे कहीं न कहीं लड़कियाँ मिल ही जायेंगी, चाहे वे जातिमें मिलें या दूसरी जातियोंमें । यदि वे दूसरी जातियोंकी कन्यायें ले आयेंगे तो उनकी जातिकी कन्यायें औरोंके लिए बची रहेंगी। बात यह है कि इस प्रश्नका विचार समग्र जैनसमाजके हानि लाभपर दृष्टि रखकर करना चाहिए । तमाम जैनजातियोंमें जितनी कन्यायें हैं यदि उन सबका यथोचित सम्बन्ध हो जाय, किसीको कुँआरी न रहना पड़े-और विवाहक्षेत्र बढ़ जानेसे यह निस्सन्देह है कि लड़कियाँ कुँआरी न रहेंगी-तो समझना होगा
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