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जैनसिद्धान्तभास्कर।
स्वामीको अच्छा कवि समझते हैं; परन्तु द्विवेदीजीने यह लेख हमारा विश्वास है कि केवल अपने सेठजीको प्रसन्न करनेके लिए लिखा है; उनके हृदयसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। लेखमें तथ्य भी बहुत थोड़ा है । शब्दाम्बर और प्रशंसाकी भरमार ही अधिक है । बहुतसी अप्रासङ्गिक बातें भी लिख दी गई हैं। एक जगह आपने मालूम नहीं किसको लक्ष्य करके यह लिखा है कि-" कितने ही लोग भगवजिनसेनको एक साधारण विद्वान् निश्चित करनेके लिए लम्बी चौड़ी चेष्टा कर रहे हैं ।"
और फिर इसके लिए आपने पंचमकालको दोष दिया है। यह तो आपने एक ही कही । अरे भाई, उन्हें साधारण विद्वान् कौन बनाता है सो तो बतला दो; व्यर्थ ही पंचमकालको क्यों कोस रहे हो ? एक इतिहासके पत्रमें इस प्रकारकी बातें अच्छी नहीं मालूम होती । किसीके बनानेसे कोई छोटा बड़ा नहीं बन सकताजो जितना होता है उतना ही रहता है । आप जैसे चाहे जितने किरायेके लेखक मिल जावें, पर क्या आप समझते हैं कि इससे आपके सम्पादक महाशयकी योग्यता बढ़ जायगी ? कभी नहीं।
लेखके अन्तिम भागमें जिनसेन और कालिदासके समानभावव्यंजक दो दो श्लोक उद्धृत किये गये हैं । द्विवेदीजीने वास्तवमें अपने आन्तरिक विश्वासके अनुसार दिखलाना तो यह चाहा है कि कालिदासकी छाया लेकर जिनसेनने अपने श्लोक रचे हैं, परन्तु अपने भोले सेठजीको प्रसन्न करनेके लिए इस समानताका निष्कर्ष यह निकाला है-“ उक्त श्लोकोंसे पाठक स्वयं विचार कर सकते
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