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जनहितैषी -
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जल पीनेवाला था । मालूम नहीं मूल
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खानेवाला और नदी का लेखकका ध्यान इन बातोंकी ओर क्यों नहीं गया। इसमें एक जगह लिखा है कि “ कपिलके बाद भारतवर्ष में जिनके धार्मिक साम्राज्यका डंका बज गया था वह जैनियोंके तत्त्ववेत्ता प्रातःस्मरणीय तीर्थंकर श्री १००८ पार्श्वनाथ स्वामी थे । " क्या ये ' प्रातःस्मरणीय ' आदि शब्द मूल लेखक पादरी साहबके लिखे हुए हैं ? हमारी समझमें एक पादरी इस तरह कभी नहीं लिख सकता, तब सम्पादक महाशयको या अनुवादक महाशयको क्या आवश्यकता थी कि अपनी भक्ति और श्रद्धाको दूसरेके लेखमें घुसकर प्रकाशित करें ? क्या आश्चर्य है कि लेखके अन्यान्य अंशोंमें भी इस भक्ति और श्रद्धा के मोहसे — जिसका इतिहाससे कोई सम्बन्ध नहीं है— सम्पादक महाशयने मूल लेखकके विचारोंमें भी थोड़ा बहुत परिवर्तन कर दिया हो और तब हम कैसे विश्वास कर सकते हैं कि लेखके सब विचार मूल लेखकके हैं ? ऐसे अनुवादोंपर विश्वास करना जोखिमका काम है । एक ऐतिहासिक पत्रके अभिमानी सम्पादकको अनुवादकके उत्तरदायित्वका इतना भी ज्ञान न होना आश्चर्यका विषय है ।
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जिनसेनाचार्यका पाण्डित्य ।
इसके लेखक पं० हरनाथजी द्विवेदी हैं । आपने आदिपुराणसे बहुत से श्लोक उद्धृत करके यह बतलाया है कि जिनसेन स्वामी बड़े नामी कवि थे, उनकी उपमा, उत्प्रेक्षा, व्याकरणज्ञता आदि बहुत ऊँचे दर्जेकी की हैं । इस विषय में हमें कुछ कहना नहीं है, हम भी जिनसेन
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