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जैनहितैषी
इससे पतिवियोगमें दुख कर, भला न पाप कमाना है, किन्तु स्व-पर-हितसाधनमें ही, उत्तम योग लगाना है ॥
( ६ )
आत्मोन्नतिमें यत्न श्रेष्ठ है, जिस विधि हो उसको करना, उसके लिए लोकलजा अपमानादिकसे नहिं डरना । जो स्वतंत्रता लाभ हुआ है, दैवयोगसे सुखकारी, दुरुपयोगकर उसे न खोओ, जिससे हो पीछे ख्वारी ॥
( ७ )
माना हमने, हुआ, हो रहा, तुमपर अत्याचार बड़ा, साथ तुम्हारे पंचजनोंका, होता है व्यवहार कड़ा । पर तुमने इसके विरोधमें, किया न जब प्रतिरोध खड़ा, तब क्या स्वत्व भुलाकर तुमने किया नहीं अपराध बड़ा ?
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( 6 )
स्वार्थसाधु नहिं दया करेंगे, उनसे इस अभिलाषाकोछोड़, स्वावलम्बिनी बनो तुम, पूर्ण करो निज आशाको सावधान हो स्वबल बढ़ाओ, निजसमाज उत्थान करो, ' दैव दुर्बलोंका घातक ' इस नीतिवाक्यपर ध्यान करो ॥ ( ९ )
बिना भावके बाह्यक्रियासे, धर्म नहीं बन आता है, रक्खो सदा ध्यानमें इसको, यह आगम बतलाता है । भाव बिना जो व्रत नियमादिक, करके ढोंग बनाता है, आत्मपतित होकर वह मानव, ठग-दंभी कहलाता है ॥
(१०)
इससे लोकदिखावा करके, धर्मस्वाँग तुम मृत धरना, सरल चित्तसे जो बन आए, भावसहित सोही करना ।
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