________________
विधवा-सम्बोधन ।
६०५
विधवा-सम्बोधन।
(१) विधवा बहिन, समझ नहिं पडता, क्यों उदास हो बैठी हो, क्यों कर्तव्यविहीन हुई तुम, निजानन्द खो बैठी हो। कहाँ गई वह कान्ति, लालिमा, खोई चंचललाई है, सब प्रकारसे निरुत्साहकी, छाया तुमपर छाई है ॥
अंगोपांग न विकल हुए कुछ, तनुमें रोग न व्यापा है; और शिथिलता लानेवाला, आया नहीं बुढापा है। मुरझाया पर वदन, न दिखती जीनेकी अभिलाषा है, गहरी आहे निकल रही हैं, मुंहसे, घोर निराशा है।
. (३) हुआ हाल क्यों भगिनी ऐसा, कौन विचार समाया है, जिसने करके विकल हृदयको, 'आपा' भाव भुलाया है। निजपर का नहिं ज्ञान, सदा अपध्यान हृदयमें छाया है भववनमें न भटकनेका भय, क्या अन्धेर मचाया है।
. (४) शोकी होना स्वात्मक्षेत्रमें, पाप बीजका बोना है, जिसका फल अनेक दुःखोंका संगम आगे होना है। शोक किये क्या लाभ ? व्यर्थ ही अकर्मण्यअन जाना है, आत्मलाभसे वंचित होकर, फिर पीछे पछताना है ॥
- (५) · · योग अनिष्ट, वियोग इष्टका, अघतरु दो फल लाता है,
फल नहिं खाना वृक्ष जलाना, इह परभव सुखदाता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org