Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 17
________________ पापका भान । ५८९ गया है उसमें रोगके स्थानका निर्णय करना बहुत ही कठिन है; परन्तु निरोगी शरीरमें व्याधिका चिह्न . बहुत जल्दी जान लिया जाता है। यही कारण है कि अन्तरात्मा द्वारा प्रकाशित हृदयमें पापरूपी रोगका मुझे झटसे भान हो जाता है। मैं तुरन्त ही उसका उपचार करने लग जाता हूँ और तब मैं ईश्वराराधन और योगसाधनामें तल्लीन हो जाता हूँ। जो दस पाँच ही पापोंका भान मुझे होता रहता हो, या दस पाँच ही पापोंको मैं अपने द्वारा होनेकी कल्पना कर बैलूं और उन्हें दूर होनेपर मैं अपने आत्माको पवित्र मान लूँ तो यह मेरी भूल होगी; पर मेरा अन्तरात्मा तो मुझमें असंख्य पापोंका भान सदा जागृत रखता है और एकके पीछे. एकको, इसी तरह सब पापोंके दूर करने और आगे आगे उन्नति करते रहनेके लिए प्रेरणा करना रहता है। कभी नास्तिक दशामें मैं ऐसा भी बोल उठता हूँ कि " क्या ईश्वर है ? ख्रीष्ट और चैतन्यआदिके प्रकाशमय मुख क्या अब तक मौजूद हैं ? ” इस शंकाके समयमें मुझे कितना कष्ट होता है, उसे मैं क्या कहूँ ? तब " अरे पापी ! अब भी तू इस बातकी शंका करता है ? " इस प्रकार कहकर और दौड़-धूप करके मैं शान्तिनगरके आनन्दाश्रममें प्रवेश करता हूँ। मनुष्य एकबार जब तक रोगी न हो तब तक उसे तन्दुरुस्तीकी कीमत मालूम नहीं होती। मैंने जिस प्रकार संतापका अनुभव किया है उसी प्रकार उससे छुटकारा पानेकी आनन्ददशाका भी अनुभव किया है। जिस प्रकार घड़ीका मिनिटका काटा निरन्तर टकटक करता रहता है उसी प्रकार मेरे हृदयमें भी स्वर उठता रहता है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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