Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ ५७६ जैनहितैषी इस परसे तीन सिद्धान्त फलित होते हैं-१ स्वभाव अथवा स्वस्वभावमें रमण करना मनुष्यके लिए स्वाभाविक है, अशक्य नहीं। २ परन्तु मनुष्य प्रायः विभावमें अथवा जड़भावमें ही मग्न रहता है-परप्रदेशमें ही और स्वभावविरुद्ध वातावरणमें ही सारा जीवन अथवा जीवनका अधिक भाग व्यतीत करता है। ३ और स्वभावविरुद्ध वातावरणमें रहनेके कारण उसे स्वभावतः ही दुःखानुभव करना पड़ता है, जिस तरह कि हवामें स्वेच्छाविहार करनेवाले किसी पक्षीको यदि मछलियोंके साथ सरोवरमें रहना पड़े तो उसे दुःख ही होगा। यद्यपि यहाँ जिस प्रकार मछली या पानी स्वयं 'दुःख' नहीं है-वास्तवमें दुःख कोई पदार्थ ही नहीं है-स्वभावविरुद्ध वर्ताव करनेसे जिन परिणामोंका अनुभव होता है उन्हें ही दुःख कहते हैं-उसी प्रकार शरीरों अथवा सृष्टिके पदार्थोंके किसी भागविशेषमें कोई 'दुःख' नामकी चीज़ भरकर नहीं रख दी गई है कि जिससे उसका संग करनेवालेको दुःख चिपक जाता हो; तथापि जब अमर्यादित स्वभाववाला आत्मा इन मोदित स्वभाववाले शरीरों या पदार्थोंमें निवास करने लगता है तब उस स्वभावविरुद्ध कार्यसे स्वभावतः ही कुछ अप्रिय अनुभव होता है और उसे ही हमने 'दुःख' संज्ञा दे रक्खी है । वास्तवमें दुःख सुख ये सब कल्पनायें हैं, विना अस्तित्वके कोरे नाम मात्र हैं । अतएव दुःखके दूर करनेका केवल एक ही मार्ग हो सकता है कि विभावसे मुक्त होने और स्वभावमें रक्त होनेके लिए जितना बन सके उतना उद्योग करना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 160