________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त चेतना या उपयोग जीव का लक्षण हैं। उसके दो प्रकार हैं - निराकार और साकार / निराकार के चार प्रकार हैं - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवल दर्शन / साकार के आठ प्रकार हैंमतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, केवलज्ञान, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और अवधि अज्ञान। जीव में क्रमानुसार इनकी क्रमिक उपस्थिति या अनुपस्थिति रहती है / केवलज्ञान ही पूर्ण सत्य ज्ञान है, जो केवल मुक्त जीव प्राप्त करता है। बद्ध जीव कर्म के बन्धन के कारण केवलज्ञान-सम्पन्न नहीं हो सकता। बद्ध जीव के दो प्रकार हैं - स्थावर या अचल और त्रस या चल / वनस्पति आदि एकेन्द्रिय और अचल होने से स्थावर हैं। एकेन्द्रिय जीव या तो बृहत् या सूक्ष्म होते हैं / त्रस जीवों में दो या तीन या चार या पाँच इन्द्रियों से युक्त होने के आधार पर पुनः भेद हो जाता है। पंच-इन्द्रिय-सम्पन्न भी पुनः समनस्क और अमनस्क इन दो भेदों में विभाजित हैं। __ जीवों में कर्मसंयोग से तीन प्रकार की शुभ और पाँच प्रकार की अशुभ विकृतियाँ होती हैं / शुभ विकृतियाँ निम्नलिखित हैं - (1) प्रशस्तराग अर्थात् सिद्धों, अर्हतों, साधुओं आदि के प्रति स्नेह एवं श्रद्धा तथा धार्मिक कार्यों को करने की इच्छा (2) अनुकम्पा अर्थात्, भूखे, प्यासे, दीन-दुःखी आदि जीवों के प्रति दया (3) क्रोध, मान, माया, लोभ आदि से विमुक्ति / पाँच अशुभ विकृतियाँ निम्नलिखित हैं - (1) प्रमादबहुल चर्या (2) कालुष्य (3) विषयलौल्य (4) परपरिताप (5) परापवाद / बद्ध जीवों के पाँच प्रकार के देहों की कल्पना की गई है - (1) औदारिक अर्थात् भौतिक (2) वैक्रिय अर्थात् लचीले द्रव्य से निर्मित (3) आहारक (4) तैजस् (5) कार्मण / इनमें से प्रत्येक परवर्ती देह अपने पूर्ववर्तियों से सूक्ष्मतर होता है। प्रथम चार के माध्यम से जीव अनुभव प्राप्त करता है, अतः इन्हें सोपयोग और अन्तिम को निरुपयोग कहते हैं / अजीव जिस पदार्थ में चेतना का अभाव हो, उसे अजीव कहते हैं / यह जीव की ही तरह नित्य और अनन्तधर्मा होता है। समस्त अचर विश्व अजीव का ही परिणाम है / जीव के सान्निध्य से अजीव विश्व की उत्पत्ति का कारण रूप है। अजीव पाँच प्रकार के हैं - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल / भौतिक अणुओं को पुद्गल कहते हैं / इन्हें इसलिये पुद्गल कहा जाता है कि इनमें संयोग और वियोग की प्रक्रिया होती रहती है - पुदयन्ति गलन्ति च / स्वरूप की दृष्टि से पुद्गल दो प्रकार के होते हैं - अणु और स्कन्ध / जो अपने में ही आदि, मध्य और अन्त वाला हो तथा अविभक्त हो, उसे अणु या परमाणु कहते हैं / ये रूपरहित होने से इन्द्रियगत नहीं होते हैं / अणुभेद से उत्पन्न होते हैं (भेदादणुः) / अतः इन्हें कार्यपरमाणु कहते हैं / गुण की दृष्टि से अणु पाँच प्रकार के अणुओं का निर्माण करते हैं, कारण-परमाणु कहे जाते हैं / एक से अधिक अणुओं के संयोग से स्कन्ध अणु का निर्माण होता है / यह स्वरूपिन् और इन्द्रियगत होता है।