________________ जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा जीव जैन दर्शन में चेतन द्रव्य या पदार्थ को जीव के नाम से पुकारा जाता है - चेतना लक्षणो जीवः। वैसे, जीव की अपेक्षा आत्मा शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त है / आत्मा को बन्धन की अवस्था में ही जीव कहा जाता है / परन्तु आत्मा और जीव का यह भेद सदा ध्यान में नहीं रखा गया है / जीव की 'चेतना' को उपयोग या बोध के नाम से भी पुकारा गया है। जीव संख्या में असंख्य हैं, परन्तु सब गुणों में समान हैं। इस तरह जैन दर्शन में बहुजीववाद में गुणात्मक सारूप्य और परिमाणात्मक बाहुल्य मिलता है। जैन मान्यता के अनुसार सम्पूर्ण विश्व असंख्य जीवों से भरा पड़ा है / इसे हम जैन दर्शन में सर्वजीववाद का तत्त्व कह सकते हैं / प्रत्येक जीव यद्यपि स्वतन्त्र और पृथक् है, पर वह अन्य जीवों और तत्त्वों के साथ सम्बन्ध रख सकता है / बन्धन की अवस्था में जीव-अजीव अर्थात् देह से सम्बन्धित रहता है / देह जीव से जनित नहीं पर मात्र उसका तटस्थ गुण है। उसका देह के साथ समवाय सम्बन्ध है / वह और उसका विशिष्ट गुण दोनों देह के साथ समव्यापी हैं / जिस तरह दीपक का प्रकाश एक घड़े में सर्वत्र व्याप्त होता है, वैसे ही जीव देह में सर्वव्यापी होता है। यदि घड़ा छोटा होता है तो रोशनी का विस्तार छोटा और यदि घड़ा बड़ा होता है तो रोशनी का विस्तार बड़ा होता है, इसी तरह जीव भी देह के विस्तार के अनुसार संकुचन-विस्तार प्राप्त करता है / जीव का देहानुसार संकुचन-विस्तरण जैन दर्शन की एक अनोखी मान्यता है / जीव को एक अस्तिकाय माना गया है, जिसमें असंख्य प्रदेश होते हैं / यही कारण है कि वह घट-बढ़ सकता है। अन्य सब पदार्थों की तरह जीव भी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की प्रक्रिया के अधीन है / जीव के दो पक्ष होते हैं, जिन्हें द्रव्य-पर्याय और गुण-पर्याय कहते हैं। द्रव्य-पर्याय शाश्वत रहता है, जब कि गुण-पर्याय परिवर्तनशील है। प्रत्येक जीव अपने मूल स्वरूप में शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त है। इस अवस्था में वह निर्मल दर्पण या स्वच्छ जल की तरह होता है / इस स्थिति में यह तीन रत्नों और चार अनन्तों से युक्त रहता है, जिन्हें क्रमशः सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र तथा अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य कहा गया है। शुद्ध और मुक्त अवस्था में ये त्रिरत्न और अनन्त-चतुष्टय सभी जीवों में समान होते हैं / परन्तु बन्धन की अवस्था में ये कर्मों के आवरण से ढक जाने से उनमें भेद हो जाता है / वे अजीव के सम्पर्क में आकर, विभिन्न प्रकार की देह धारण कर लेते हैं / उनके ज्ञान में भी कर्मानुसार भेद हो जाता है। कर्मों के इस आवरण से, जिसे बन्ध की संज्ञा दी गई है, जीव के मौलिक गुण त्रिरत्न, अनन्त-चतुष्टय आदि कभी नष्ट नहीं होते / वे तो मात्र ढक जाते हैं, जिस तरह सूर्य बादलों से आच्छादित हो जाता है या मिट्टी के कण दर्पण के प्रकाश को ढक देते हैं / जीवगत ये विकृतियाँ और जीवों का पारस्परिक वैषम्य आगन्तुक है, कर्ममूलक है, स्वाभाविक नहीं है / इन वैषम्यों के कारण जीव के दो प्रकार माने जा सकते हैं - शुद्ध जीव जो मुक्त हैं, तथा संसारी जीव जो विकृत हैं / यह विकृति, जैसा कि ऊपर बताया गया है, कर्म का परिणाम है। अज्ञान और राग-द्वेष कर्म के कारण हैं / सम्यक् दर्शन से सम्यक् ज्ञान की और सम्यक् ज्ञान से सम्यक् चरित्र की प्राप्ति होती है। इससे कर्म का क्षय होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है।