________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त सिद्धेश्वर भट्ट जैन दर्शन के सिद्धान्तों को तात्त्विक और नैतिक इन दो प्रकारों में वर्गीकृत कर पृथक्-पृथक् रूप से देखा जा सकता है, तथापि इन दोनों के अन्योन्याश्रित होने तथा एक-दूसरे में घुले मिले होने से हम एक साथ ही इनका विचार करेंगे / इस विश्व के निर्माण के कारण-रूप दो चरम पदार्थों को जैन दर्शन में स्वीकार किया गया है, जो जीव और अजीव के नाम से पुकारे गये हैं। पदार्थ को सत् या द्रव्य कहा गया है। दोनों द्रव्य पृथक् गुण-युक्त होने से यहाँ तात्त्विक द्वैतवाद मिलता है, परन्तु संग्रहनय की दृष्टि से, क्योंकि सब द्रव्यात्मक ही है, एकतत्त्ववाद को भी स्वीकार किया जा सकता है। जैन तत्त्वज्ञान की बौद्ध ज्ञान तत्त्व की तरह यह विशेषता है कि इसमें ईश्वर के रूप में किसी विश्वेतर चरम सत्ता को विश्व का कारण नहीं माना गया है। विश्व अनादि है, ईश्वर-निर्मित नहीं / जैन तत्त्वज्ञान की दूसरी विशेषता समन्वयात्मक दृष्टि है, जिसके अन्तर्गत एकतत्त्ववाद, द्वैतवाद, बहुतत्त्ववाद आदि समस्त विरोधों का सामञ्जस्यपूर्ण समाधान हो जाता है / इसमें औपनिषदिक नित्यवाद और बौद्ध क्षणिकवाद, चार्वाक का जड़वाद और वेदान्त के अध्यात्मवाद आदि का सुन्दर समन्वय प्राप्त होता है / जैन तत्त्वज्ञान में पदार्थ को अनन्तधर्मात्मक माना गया है / पदार्थ अपने अस्तित्व में नित्य है, परन्तु यह नित्यता परिवर्तनहीनता या अविनाशिता की द्योतक नहीं / नित्य का तात्पर्य है, पदार्थ के मौलिक स्वरूप का शाश्वत रहना - तद्भावाव्ययं नित्यम् / पदार्थ का गुण-रूप शाश्वत नहीं, अपितु परिवर्तनशील है / शाश्वत होने के कारण प्रत्येक पदार्थ ध्रौव्यात्मक अर्थात् नित्य है और अशाश्वत होने के कारण उसका गुणरूप उत्पाद-व्ययात्मक अर्थात् उत्पन्न और नष्ट होने वाला है। इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक है। इसी को जैन धर्म में त्रिपदी कहते हैं। पदार्थ में व्यय और ध्रौव्य दोनों का होना आत्मविरोध नहीं है, क्योंकि एक ही पदार्थ एक दृष्टि से स्थायी और दूसरी दृष्टि से परिवर्तनशील होता है। कोई भी पदार्थ न तो पूर्णतः स्थायी है और न पूर्णतः क्षणिक / / तात्त्विक दृष्टि से मूलतः दो पदार्थ हैं - जीव और अजीव / अजीव के पुनः पाँच प्रकार हैं - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल / इन सबका आगे विस्तार से विवेचन किया जाएगा / काल