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संस्कृत और हिन्दी में संज्ञा कहते हैं। इसकी यह ‘संज्ञा' है, अर्थात् इस वस्तु या व्यक्ति का यह 'नाम' है।
तत्त्वार्थसूत्र' में संज्ञा शब्द का प्रयोग मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्द के रूप में हुआ है। आठवीं शती के जैन-नैयायिक अकलंक ने संज्ञा शब्द का प्रयोग प्रत्यभिज्ञान-प्रमाण के लिए किया है, किन्तु आगम में आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि के रूप में जिन संज्ञाओं की चर्चा है, वस्तुतः वे अभिलाषा-रूप हैं। व्यक्ति की अभिलाषा को व्यक्त करने के लिए संज्ञा शब्द का प्रयोग हुआ है। वेदनीय तथा मोहनीय-कर्म के उदय से एवं ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय-कर्म के क्षयोपशम से आहारादि की प्राप्ति की जो अभिलाषा, रुचि या मनोवृत्ति है, वही संज्ञा है। पंचसंग्रह में कहा गया है –जिससे संक्लेषित होकर जीव इस लोक में और जिनके विषय का सेवन करके इहलोक और परलोक में दारुण दुःख को प्राप्त होता है उनको संज्ञा कहते हैं।' गोम्मटसार के अनुसार नोइन्द्रियावरण-कर्म के क्षयोपशम से होने वाले ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। ज्ञानमुनि ने संज्ञा शब्द के दो अर्थ बतलाए हैं - 1. संज्ञान (अभिलाषा, रुचि, वृत्ति या प्रवृत्ति), अर्थात् आयोग (झुकाव, रुझान) ग्रहण करने की इच्छा संज्ञा है। जीव जिसके निमित्त से भली-भांति जाना पहचाना जाता है, उसे संज्ञा कहते हैं। व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ में कह सकते हैं कि 'संज्ञान संज्ञा आभोग इत्यर्थः यदिवा संज्ञायते अनया अयं जीवः इति संज्ञा। जिससे जीव का सम्यक्रूपेण ज्ञान होता है, जीव को जाना या पहचाना जाता है, उसे संज्ञा कहते हैं। पूर्व में जहाँ संज्ञा शब्द अभिलाषा या वासना का प्रतीक माना गया, वहीं यहाँ संज्ञा शब्द ज्ञानार्थक माना गया है। वस्तुतः, जैन आगमों में संज्ञी शब्द का प्रयोग होता है, यहाँ
। मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽऽभि – निबोध इत्यनर्थान्तरम् – तत्त्वार्थसूत्र (1.13) 2 पंचसंग्रह प्राकृत - 1/51 तथा पंचसंग्रह संस्कृत 1/344 3 गोम्मटसार जीवकाण्ड -/मू./660 णो इंदियआवरणखओवसमं तज्जवोहणं सण्णा। * सर्वार्थ सिद्धि, 1/13 'प्रज्ञापना सूत्र 8/725 का विवेचन।
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