________________
अध्याय-1 विषय प्रवेश
संज्ञा का स्वरूप एवं परिभाषाएँ
पाश्चात्य–मनोविज्ञान में प्राणीय-व्यवहार के प्रेरक तत्त्वों को मूल प्रवृत्तियाँ (Instinct) माना गया है। इन्हीं प्राणीय-व्यवहार के प्रेरक तत्त्वों को जैनदर्शन में संज्ञा कहा गया है। जैनदर्शन और आधुनिक मनोविज्ञान-दोनों में इन व्यवहार के प्रेरक तत्त्वों को जन्मजात माना गया है और इसीलिए इन्हें मूल-प्रवृत्ति कहा गया है। जैनदर्शन में प्राणीय-व्यवहार की प्रेरक या संचालक इन मूलवृत्तियों को ही संज्ञा कहा जाता है और मूल प्रवृत्तियों के समान ही संज्ञा को भी जन्मना माना गया है। कहा गया है कि सभी प्राणियों में आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा (संचयवृत्ति) जन्मना ही पायी जाती है। एक अन्य अपेक्षा से, संसारी-जीव के जीवत्व को, अर्थात् उसकी जीवन जीने की वृत्ति को जिससे जाना या पहचाना जाता है, उसे संज्ञा कहते हैं, अतः जो व्यवहार का प्रेरक-तत्त्व है, वह संज्ञा है। संज्ञा शारीरिक आवश्यकताओं एवं मनोभावों की वह मानसिक-सचेतना है, जो अभिलाषा या आकांक्षा के रूप में अभिव्यक्त होती है और हमारे व्यवहार की प्रेरक बनती है। संज्ञाओं से बाधित होकर ही जीव इस लोक में कर्म करता है और कर्म के परिणाम स्वरूप जीव सांसारिक-सुख या दुःख को प्राप्त होता है और संज्ञाओं की उपस्थिति के कारण ही तनावग्रस्त भी बनता है। क्षुद्र प्राणी से लेकर विकसित मनुष्य तक सभी संसारी-जीवों में आहार, भय, मैथुन व परिग्रह-रूप जो चार प्रकार की वृत्तियाँ पायी जाती हैं, उन्हें ही संज्ञा कहते हैं।
____ जैनदर्शन में संज्ञा एक पारिभाषिक-शब्द है। 'सम' उपसर्गपूर्वक 'ज्ञा' धातु से निष्पन्न 'संज्ञा' शब्द व्याकरण-शास्त्र की दृष्टि में किसी वस्तु, व्यक्ति, स्थानादि के नाम का वाचक होता है। अंग्रेजी भाषा में जिसे Noun कहा जाता है, उसे ही
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org