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जैन आगम.: वनस्पति कोश
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उत्पत्ति स्थान-भारत के कुछ स्थानों को छोड इसकी उपज प्रायः सर्वत्र ही होती है।
विवरण-इस प्रजाति में अनेक जातियां होती हैं। भारत में करीब ५० जाती हैं, जिनमें कुछ वन्य एवं कुछ कृषित होती हैं। इनमें दो मुख्य प्रकार की लताएं होती हैं, एक वामावर्त तथा दूसरी दक्षिणावर्त। ये वर्षायु लताएं होती हैं, जिनमें से कृषित के कंदों का उपयोग खाने के लिए किया जाता है। भावप्रकाशकार इसके आकार, रंग, स्वाद आदि के आधार पर अनेक भेद लिखते हैं। जितनी जातियां भारत में होती हैं उनमें अनेक प्रकार के कंद पाए भी जाते हैं। इनमें बहुत बडे लंबे गोल, बहत गहराई में होने वाले, सतह के पास होने वाले, एकाकी गुच्छों में अनेक, मुलायम, कठोर, रोएंदार, बिना रोएंदार आदि प्रकार पाये जाते हैं। इनमें से कुछ लताओं में ऊपर पत्रकोणों में छोटी कन्दवत् रचनाएं भी पाई जाती है।
(भाव०नि० शाकवर्ग० पृ०६९५)
पिप्पल, केशवावास, चलपत्र, पवित्रक, मङ्गल्य,श्यामल, बोधिवृक्ष, गजाशन, श्रीमान्, क्षीरद्रुम, विप्र,शुभद, श्यामलच्छद, गुह्यपत्र, सेव्य, सत्य, शुचिद्रुम, चैत्यद्रुम, धर्मवृक्ष और चन्द्रकर ये अश्वत्थ के पर्यायवाची हैं।
(धन्व० नि० ५/७१.७२ पृ० २४१) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-पीपल वृक्षा ब०-अश्वत्थ। म०-पिंपल। क०अरलो। गु०-पीपलो। ते०-राविचेटुं। ता०-अरशमरम्। फा०-दरख्तेलरंजा। अ०-शज्रतुलमुर्तअशा ले०-Ficus Religiosa(फाइकस् रिलीजिओसा)Fam.Moraceae (मोरेसी)। । (मोरेसी)। *
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Ao
आलुय आलुय (आलुक) आलु।
भ०७/६६,२३/१ जीवा० १/७३ उत्त० ३६/९६ देखें आलुग शब्द।
वृक्ष
आसाढय आसाढय (आषाढा) दुर्वा, शतमूला
देखें असाढय शब्द।
भ०२१/१९
उत्पत्ति स्थान-इसके वृक्ष देश के प्रायः सब प्रान्तों में आसोत्थ
लगाये हुए पाये जाते हैं और हिमालय के जंगलों, बंगाल तथा आसोत्थ (अश्वत्थ) पीपल भ० २२/३ प० १/३६/१ । मध्यभारत में भी पाए जाते हैं। अश्वत्थ के पर्यायवाची नाम
विवरण- इसका वृक्ष बहुत ऊंचा होता है और खूब पिप्पल: केशवावास श्चलपत्रः पवित्रकः।
फैलता है। पत्ते गोलाकार और नोकीले होते हैं। पत्रदण्ड लंबा मङ्गल्यः श्यामलोऽश्वत्थो बोधिवृक्षो गजाशनः।। ७१॥ होता है। इसमें भी वड के समान छोटे-छोटे गोल फल लगते श्रीमान् क्षीरद्रुमो विप्रः शुभदः श्यामलच्छदः। हैं। इसकी छाया सघन और प्रिय होती है। पीपल वृक्ष पवित्र पिप्पलो गुह्यपत्रस्तु, सेव्यः सत्यः शुचिद्रुमः।। ७२॥ माना जाता है।
(भाव०नि०वटादिवर्ग० पृ०५१४) चैत्यद्रुमो धर्मवृक्ष: चन्द्रकर मिताह्वयः।।
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