Book Title: Jain Agam Vanaspati kosha
Author(s): Shreechandmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 319
________________ जैन आगम : वनस्पति कोश 299 रविवल्ली शब्द मिलते हैं। वैद्यक शब्द कोश में सूर्यवल्ली सूर्य की ओर इसका मुख रहता है, इसी कारण इसको का अर्थ क्षीरकाकोली है। आयुर्वेदीय तथा शालिग्राम शब्द सूरजमुखी कहते हैं। फूलों के मध्य भाग में केसरकोष कोशों में सूर्यवल्ली का अर्थ अर्कपुष्पी या अर्कपुष्पिका किया रहते हैं और इनके बीच कसुम के बीज के समान सफेद गया है। सूर्य लता का अर्थ ऊपर के दोनों कोशों में बीज रहते हैं। इसके पौधे बीज से ही उत्पन्न होते हैं आदित्य भक्ता किया है और रविवल्ली आदित्यभक्ता और हर समय इसको रोपण किया जा सकता है। परन्तु (सूर्यभक्ता) का अर्थ देती है। क्षीर काकोली प०१/४८/५ शीतकाल और ग्रीष्म ऋत ही बीजों को रोपण करने का पर आगई है इसलिए यहां आदित्यभक्ता (सूरजमुखी) का अच्छा समय है। बीज वपन करके ऊपर मिट्टी का चूरा अर्थ ग्रहण किया जा रहा है। छींट कर कई दिनों तक थोड़ा-थोड़ा जल का छींटा रविवल्ली के पर्यायवाची नाम देकर जमीन को सरस रखते हैं। बीज बोने के पहले अर्ककान्ता दिव्यतेजाः, शीता, वृष्या वरौषधिः।। मिट्टी के साथ खभी या गोबर का रविवल्ली तु वरदा, मूलपर्णी सुखोद्भवा ।।७२४ ।। सतेज होते हैं। सुवर्चला सूर्यभक्ता, सूर्यावर्त्ता रविप्रिया। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग ६ पृ०३७६) अर्कपुष्पी च पृथ्वीका, पार्था ब्रह्मसुवर्चला।।७२५ ।। अर्ककान्ता, दिव्यतेजा, शीता, वृष्या, वरौषधि, सूरिल्लि रविवल्ली, वरदा, मूलपर्णी, सुवर्चला, सूर्यभक्ता, सूर्यावर्ता, __ सूरिल्लि ( ) ग्रामणी तृण रा०१८४ रविप्रिया, अर्कपुष्पी, पृथ्वीका, पार्था और ब्रह्मसुवर्चला ये । सूरल्लि |पुं।स्त्री। (दे०) तृण विशेष, ग्रामाणी सब पर्याय सुवर्चला के हैं ।(कैयदेव निघंटु ओषधि वर्ग पृ०१३४) अन्य भाषाओं में नाम नामक तृण (पाइअसद्दमहण्णव पृ०६२८) विमर्श-सूरूल्लि, सूरल्लि दोनों शब्द देशीय हैं हि०-सूरजमुखी, सूर्यमुखी । मलय०-सूर्यकंदी। और ग्रामणीतृण के वाचक हैं। सूरिल्लि शब्द भी बं०-सूरजमुखी हुडहुड, वनशलते। म०-सूर्यफल । ग्रामणीतृण का वाचक होना चाहिए। निघंटुओं में इसका उर्दू०-सूरजमुखी। गु०-सूरजमुखी। क०-हुरहुर, अर्थ नहीं मिला है। आदित्यभक्तिचेटु । ते०-सूर्य कान्तिम । फा०गुलआफताव परस्त । अ०-अर्दियून अर्झवान । अं० सेडिय Suniflower (सनफ्लावर)। ले०-Helianthus Annus linn (हलिएन्थसूएन्युअस्)। सेडिय ( ) मूंज भ०२१/१६ प०१/४२/१ उत्पत्ति स्थान-यह अमेरीका का आदिवासी है विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में सेडिय शब्द तृणवर्ग के और भारत में सर्वत्र वाटिकाओं में इसको लगाया जाता अन्तर्गत है। संस्कृत भाषा में इसका वानस्पतिक नाम नहीं मिला है। हिन्दी भाषा में सेटा या साटा शब्द मिलता है। विवरण-यह भृङ्ग राजादिकुल का एक वर्ष जीवी संभव है। यही नाम सेडिय का अर्थवाचक है। शालिग्राम प्रसिद्ध पुष्पाप, ४ से ५ हाथ ऊंचे होते हैं। पत्ते डंडी की निघंटु मे मूंज को सेटा कहा गया है। ओर चौड़े, आगे को संकुचित, लम्बे खरदरे और पुराने संस्कृत में नामहोने पर झालर के समान कटे किनारीदार होते हैं । इन मुअ, मुआत, बाण, स्थूलदर्भ, सुमेखल (इक्षुकाण्ड, पर रोयें होते हैं। फूल बड़े-बड़े सूर्याकार गोल अनेक दल मौजी, तृणाख्य, ब्रह्मण्य, तेजनाह्वय, वानीरक, मुअनक, सहित नारंगी रंग के दिखाई देते हैं। सूरजमुखी फूल शीरी, दर्भाह्वव, दुर्मूल, दृढतण, ये नाम मूंज या सेटे के का मस्तक भोर के समय पूर्व की तरफ रहता है। सूर्य हैं। (शा०नि० गुडूच्यादिवर्ग०पृ०२७५) की गति के साथ ही साथ यह ऊंचा होकर दिन के शेष भाग में पश्चिम की ओर नत हो जाता है। सदा सर्वदा .... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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