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जैन आगम : वनस्पति कोश
65 जहां मेदा महामेदा उत्पन्न होती है वहीं पर क्षीरकाकोली केवल तिरहुत और दानानगर में कुछ उपज होती है। भी उत्पन्न होती है और जहां पर क्षीरकाकोली उत्पन्न विवरण-कच्चे, हरे या पक्के फलों को अंगर होती है वहां पर काकोली भी होती है। इनका कंद कहते हैं। ये ही जब विशेष प्रकार से सुखा लिए जाते शतावरी जैसा किन्तु उससे कुछ स्थूल होता है। इस मूल हैं तब मुनक्का या दाख कहलाते हैं। ये बडे, छोटे, काले, या कंद को काटने से उसमें से प्रिय गंधयुक्त दुग्ध बेदाना (बीजरहित) आदि कई प्रकार के होते हैं। इनमें निकलता है। काकोली का वर्ण कुछ श्यामता लिये हुए काले अंगूर (काकली द्राक्षा) और बड़े अंगूर या पिटारी होता है।
का अंगूर (गोस्तनी द्राक्षा) ये दोनों सर्वश्रेष्ठ गिने जाते इसकी वर्षायु झाड़ीनुमा कांटेदार बेल होती है। पत्र हैं। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग १ पृ० ६५, ६६) वी के आकार के लगभग ६ से १० इंच तक लंबे होते हैं। तथा पत्रवृन्त दीर्घ और मुलायम होता है। पुष्प श्वेत
कागणि फलगोल, कुछ लम्बाकार तथा उसमें १ से ३ तक बीज
कागणि (काकिणी) रक्तगुंजा, लालपुंघची होते हैं। (धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक भाग २ पृ० २११)
प० १/४०/५ काकिणी |स्त्री। रक्तिकायाम् । (वैद्यकशब्द सिन्धु पृ० २४१) काकलि
काकिणी के पर्यायवाची नामकाकलि (काकली) काकली दाख, भ० २२/६ काकादनी काकपीलुः, काकणन्ती च रक्तिका।। काकली के पर्यायवाची नाम
वक्त्रशल्या ध्वांक्षनखी, दुर्मोहा काकणन्तिका ।।२४ ।। अन्या सा काकलीद्राक्षा, जाम्बुका च फलोत्तमा ।। काकपीलु, काकणन्ती, रक्तिका, वक्त्रशल्या, लघुद्राक्षा च निर्बीजा, सुवृत्ता रुचिकारिणी।।१०५ ।। ध्वांक्षनखी, दुर्मोहा और काकणन्तिका ये पर्याय काकादनी काकलीद्राक्षा, जाम्बुका, फलोत्तमा, लघुद्राक्षा, के है।
(धन्व०नि० ४/२४ पृ० १८६) निर्बीजा, सुवृत्ता और रुचिकारिणी ये सब काकलीद्राक्षा के नाम हैं।
(राज०नि० ११/१०५ पृ० ३६१; शा०नि० पृ० ४८४) अन्य भाषाओं में नाम
हि०-किशमिश, बेदाना। बं०-किशमिश । गु०-किशमिश । म०-किशमिश, द्राक। ते०-किशमिश पांडु। क०-चिकुद्राक्षे । अंo-Raisins (रजिन्स)।
उत्पत्ति स्थान-भारतवर्ष के प्रायः समस्त शीत प्रधान स्थानों में न्यूनाधिक प्रमाण में यह पैदा होता है। किन्तु काश्मीर, बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, कन्दहार प्रभृति उत्तर पश्चिम के प्रदेशों में तथा कुमाऊं, कनावर, देहरादून आदि हिमालय के समीपवर्ती प्रदेशों में और नासिक, पूना, औरंगाबाद, दौलताबाद आदि दक्षिण दिशा के प्रदेशों में यह बहुतायत से होता है। हिमालय Sion (Abrus Precatorus) के पश्चिम भागों में यह स्वयमेव हो जाता है। इसके लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। बंगाल में अधिक विमर्श-प्रस्तुत प्रकरण में वल्ली वर्ग में गंजावली वर्षा के कारण इसकी ऊपज विस्तार से नहीं हो पाती, और कागणि ये दो शब्द आए हैं। कागणि का अर्थ
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