Book Title: Jain Agam Vanaspati kosha
Author(s): Shreechandmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 303
________________ जैन आगम वनस्पति कोश आफिसि नेलिस) । उत्पत्ति स्थान- जावा सुमित्रा, बोर्निओ, मलाया आदि देशों में खूब होती है। भारत के दक्षिण में विशेषतः सीलो, मद्रास, मैसूर में इसकी उपज होती है । विवरण - यह एक लताजाति की वनस्पति का पूर्णरूप से विकसित किन्तु अपक्व अवस्था में सुखाया हुआ फल है, जो काली मरिच के समान होता है। इसकी आरोही बहुवर्षायु लता होती है। कांड चिकना, लचीना एवं जोड़दार होता है। पत्ते अखंड सवृन्त आयताकार या लट्वाकार-आयताकार, नोकीले गोल या हृवत् पर्णतलवाले चर्मवत् तथा चिकने होते हैं। शिराएं बहुत होती हैं। पुष्प अद्विलिंगी तथा अवृन्त-काण्डज पुष्पव्यूहों में आते हैं। फल गोल अष्ठिफल होते हैं, जिनमें आधार की तरफ डंठल लगा रहता है। हरी अवस्था में ही इन्हें तोड़कर धूप में सुखा लिया जाता है। यह अपक्वफल कालीमिर्च के समान गोल, झुर्रीदार, गहरे भूरे रंग के एवं करीब ४ मि.मि. व्यास के सूखे हुए होते हैं । इसके शिखर पर त्रिकोणयुक्त कुक्षि लगी रहती है तथा आधार पर ४ मि.मी. लम्बा डंठल रहता है। इसके अंदर एक बीज रहता है। इसको चबाने से मनोरम, तीक्ष्ण मसालेदार विशिष्ट गंध आती है, स्वाद कडुवा, चरपरा तथा जीभ ठंडी मालूम पड़ती है । औषध में इन्हीं फलों का व्यवहार किया जाता है। कुछ लोग इसके दो भेद मानते हैं। छोटे तथा पतले छिलके वाले फलों को बावचीनी कहा जाता है। वास्तव में एक ही लता के ये फल होते हैं। प्राचीन काल से मुखशुद्धि के लिए पान के साथ या स्वतंत्र रूप में तथा मसालों में इसका प्रयोग किया जाता रहा है। (भाव०नि० कर्पूरादिवर्ग० पृ०२५६) सामग सामग (श्यामक) सांवा धान्य । श्यामक के पर्यायाची नाम प०१/४५/२ श्यामाकः श्यामकः श्यामस्त्रिबीजः स्यादविप्रियः ।। सुकुमारो राजधान्यं, तृणबीजोत्तमश्च सः ।।७६।। श्यामाक, श्यामक, श्याम, त्रिबीज, अविप्रिय, सुकुमार राजधान्य तथा तृणबीजोत्तम ये सब सामा के Jain Education International संस्कृत नाम हैं। अन्य भाषाओं में नामहि० - सावाँ, सांवा । बं० - सावा, शामुला, श्यामाधान । म० - जंगली सामा, सामुल । गु० - सामो, सामो घास । ते० - ओड्डलु । ता० - कुद्रैवलिपिल्लु । क० - समै, सवै । अंo - Japanese Barnyard millet (जापानीज वार्नयार्ड मिलेट) । ले० - Echinochloa Frumentacea link (एचिनोच्लोआ फ्रूमेन्टेसिआ ) Fam gramineae (ग्रेमिनी)। 283 (भाव०नि० धान्यवर्ग० पृ०६५८) उत्पत्ति स्थान - सभी स्थानों पर इसकी खेती की जाती है। वर्षा के आरंभ में अन्य धान्यों के साथ इसे बोते हैं। यह बहुत जल्दी (६ सप्ताह) तैयार हो सकता है। विवरण - इसका क्षुप वर्षायु, २ से ४ फीट ऊंचा पत्ते चौड़े । शूचिकाएं बड़ी एवं बीज छोटे, चिकने, चमकीले आधार पर गोल एवं अग्र नोकीला रहता है। इस धान्य को गरीब खाते हैं। इसको उबालकर या कुछ भूनकर खाया जाता है । (भाव०नि०धान्यवर्ग० पृ०६५८) DOOD सामलता For Private & Personal Use Only सामलता (श्यामलता) कृष्णसारिवा, दुधलत, काली अनन्तमूल प०१/३६/१ श्यामलता के पर्यायवाची नाम श्यामलता च पालिन्दी, गोपिनी कृष्णशारिवा । श्यामलता, पालिन्दी, गोपिनी, कृष्णशारिवा ये कृष्णसारिवा के नाम हैं । (शा०नि०गुडूच्यादिवर्ग पृ०३२४) अन्य भाषाओं में नाम हि० - कालीसर, कालीअनन्तमूल, दुधलत । बं० - कृष्ण अनन्तमूल, श्यामालता । म० - श्यामलता । क० - करीउंबु । ते० - नलतिग । ले० - Ichnocarpus fruite I scens. R. Br. (इक्नोकार्पस् फ्रूटे सेन्स) । उत्पत्ति स्थान - यह हिमालय प्रान्त के नेपाल, गंगानदी के आसपास, बंगाल, आसाम, सिलहट, चटगांव और दक्षिण आदि प्रायः सभी प्रान्तों में उत्पन्न होती है। विवरण - यह लता जाति की वनौषधि छोटे वृक्षों या गुल्मों पर चढ़ जाती है और सदा हरीभरी रहती है। www.jainelibrary.org

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