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तीसरा पूर्व चार हाथी प्रमाण स्याही, चौथा पूर्व आठ हाथी प्रमाण स्याही, पाँचवाँ पूर्व सोलह हाथी प्रमाण, छट्ठा पूर्व बत्तीस हाथी प्रमाण, सातवाँ पूर्व चौंसठ हाथी प्रमाण, आठवां पूर्व एकसौ अट्ठाईस हाथी प्रमाण, नवमा पूर्व दोसौ छप्पन हाथी प्रमाण, दशवां पूर्व पांचसौ बारह हाथी प्रमाण, ग्यारहवां एक हजार चौबीस हाथी प्रमाण, बारहवां दो हजार अड़तालीस हाथी प्रमाण, तेरहवां चार हजार और छानवें हाथी प्रमाण और चौदहवां आठ हजार एकसौ और बाणवें हाथी प्रमाण स्याही पुंज से तथा सब मिला कर चौदह पूर्व सोलह हजार तीन सौ तिरासी हाथी प्रमाण स्याही पुंज से लिखे जासकते हैं । अतः महापुरुष का रचा हुआ होने से मान्य है और इसमें गंभीर अर्थ भरा है ।
कहा है कि 'यदि सर्व नदियों की रेती एकत्रित करें और सब समुद्रों का पानी एकत्रित करें तथापि उससे अनन्तगुणा एक २ सूत्रका अर्थ होता है । मुख में हजार जीभ हों और हृदय में केवलज्ञान हो तो भी कल्पसूत्र की महिमा मनुष्यों से नहीं कही जा सकती। इस कल्पसूत्र को पढ़ने में और सुनने में मुख्यतया तो साधु साध्वी ही अधिकारी हैं। उसमें भी काल से रात्रि के समय कालग्रहणादि विधि को करनेवाले साधु ही वांच सकते हैं और साध्वियों को निशीथचूर्णि में कथन किये विधि के अनुसार साधुओं के उपाश्रय दिन में आकर सुनने का अधिकार है । श्रीवीरप्रभु के निर्वाण बाद नवसौ अस्सी वर्ष बीतने पर और मतान्तर से नवसौ तिरानवें वर्ष जाने पर आनन्दपुर नगर में पुत्र की मृत्यु से दुःखित हुए ध्रुवसेन राजा के मन को धैर्य देने के
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