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कनोड़ा में जशवंत बेचैन था । गुरुदेव की सौम्य और वात्सल्यमयी मुखमुद्रा उसकी दृष्टि में तैरती रहती है । उसका मन गुरुदेव का सान्निध्य पाने को तरसता है । खाने-पीने में और खेलने-कूदने में उसकी कोई रुचि नहीं रही । उसका मन उदास हो गया । बारबार उसकी आँखें भर आती थी । अपने प्यारे पुत्र की उत्कट धर्मभावना देख माता-पिता के हृदय में भी परिवर्तन आया । जशवंत को लेकर वे पाटण गये । गुरुदेव श्री नयविजयजी के चरणों में जशवंत को समर्पित कर दिया ।
शुभ मुहूर्त में जशवंत की दीक्षा हुई । जशवंत 'मुनि जशविजय' बन गया । बाद में जशविजयजी 'यशोविजयजी' नाम से प्रसिद्ध हुए ।
छोटा भाई पद्मसिंह भी संसार त्याग कर श्रमण बना । उनका नाम पद्मविजय रखा गया । यशोविजय और पद्मविजय की जोडी श्रमण संघ में शोभायमान बनी रही । जैसे राम और लक्ष्मण !
साधु बनकर दोनों भाई गुरुसेवा में और ज्ञानाभ्यास में लीन हो गये । दिन-रात उनका साधनायज्ञ चलता रहा । वि. सं. १६९९ में वे अहमदाबाद पधारे । वहां उन्होंने गुरुआज्ञा से अपनी अपूर्व स्मृतिशक्ति का परिचय देनेवाले 'अवधान प्रयोग' कर दिखाये । यशोविजयजी की तेजस्वी प्रतिभा देख कर, श्रेष्ठिरत्न धनजी सूरा अत्यंत प्रभावित हुए । उन्होंने गुरुदेव श्री नयविजयजी के पास आकर विनंती की :
'गुरुदेव, श्री यशोविजयजी सुयोग्य पात्र हैं । बुद्धिमान् हैं और गुणवान हैं । ये दूसरे हेमचन्द्रसूरि बन सकते हैं । आप उनको काशी भेजें और षड्दर्शन का अध्ययन करायें ।'
गुरुदेव ने कहा : 'महानुभाव, आपकी बात सही है । मैं भी चाहता हूं कि यशोविजयजी, विद्याधाम काशी में जाकर अध्ययन करें, परंतु वहां के पंडित पैसे लिये बिना अध्ययन नहीं कराते हैं ।'
धनजी सूरा ने कहा : 'गुरुदेव, आप उसकी जरा भी चिंता नहीं करें । यशोविजयजी के अध्ययन में जितना भी खर्च करना पड़ेगा, वह मैं करूंगा । मेरी संपत्ति का सदुपयोग होगा । ऐसा पुण्यलाभ मेरे भाग्य में कहां ? '
एक दिन यशोविजयजी और विनयविजयजी ने, गुरुदेव के आशीर्वाद ले कर, काशी की ओर प्रयाण कर दिया । काशी पहुंचकर, षड्दर्शन के प्रकांड विद्वान् भट्टाचार्य के पास अध्ययन प्रारम्भ कर दिया । भट्टाचार्य के पास दूसरे ७०० छात्र विविध दर्शनों का एवं धर्मशास्त्रों का अध्ययन करते थे । तेजस्वी
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