Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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पहुँच गई। यह देख राजाने अपने मनमें सोचा कि “एक छोटेसे जन्तुने ९९ बार असफल होनेपर भी प्रयत्न 6 JIST (While I am hiding here, like a (rightend deer, doing nothing for my
e a frightend deer, doing nothing for my poor people) और मैं एक डरपोक हरिणके समान यहाँ छिपा बैठा हूँ, प्रजाके लिए कुछ नहीं कर रहा हूं'। वह उठा और उसने अपनी सेनाको पुनः संगठित करके युद्ध किया तथा विजय प्राप्त की। कहनेका तात्पर्य यह है कि ज्ञानके क्षयोपशमकी कमीके कारण मनुष्यको महान् ग्रंथोंके स्वाध्यायसे विमुख नहीं होना चाहिए, अपितु प्रयत्नशील रहना चाहिए, क्योंकि स्वाध्यायसे ज़ानावरणकर्मकी अनुभागशक्ति क्षीण होती है, जिससे ज्ञानका क्षयोपशम वृद्धिंगत होता है।
___यही दृष्टि प. पू. आ. क, श्री १०८ श्रुतसागरजी महाराजकी भी रही है। यद्यपि आपका जन्म श्वेताम्बरधर्मानुयायी ओसवाल कुलमें हुआ है तथापि आपकी प्रवृत्ति दिगम्बरधर्मकी ओर हो रही है। फलस्वरूप आपने गृहस्थाश्रममें ही रहकर ज्ञानाराधना की तथा साथ ही आत्मसाधनाका कठोग अभ्यास भी किया। ४९ वर्षकी यौननाना प. पू. पादः म्पराग़ बागबनकली १०८ आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराजके सर्वप्रथम मुनिशिष्य एवं पट्टाचार्य प. पू. चारित्रचूड़ामणि १०८ आचार्य श्री वीरसागरजी महाराजसे टोडारायसिंह (राजस्थान) में क्षुल्लक दीक्षा धारण की एवं ३ वर्ष पश्चात् उन्हीं आचार्य श्री से जयपुर खानिया में मुनिदीक्षा धारण की। आप अपने नामके अनुरूप हो सतत श्रुताराधमा संलग्न हैं। यह जानकर मैं सन् १९५९ में भाद्रपद मासमें श्रीमान् सेठ बद्रीप्रसादजी सरावगी पटनावालोंके साथ प. पू. आचार्य श्री १०८ शिवसागरजी महाराजके ससंघ दर्शनार्थ अजमेर गया। वहाँ पू. श्री श्रुतसागरजी महाराजके चरणसान्निध्य में बैठकर आपकी ज्ञानाराधनाकी लगनको देखकर अतीव हर्ष हुआ। उन दिनों आप धवलग्रन्थ का स्वाध्याय कर रहे थे। यद्यपि आप स्कूलीयगणित विशेष नहीं जानते तथापि महाजनी गणितके आधारसे ही आपने त्रिलोक्रसार ग्रन्थान्तर्गत दुरूह गणितको भी सरलतासे हल कर दिया है।
सन् १९६३ से तो मैं सतत आपके सान्निध्यमें पहुँचता रहा हूँ। सन् १९६९ में जब मैं प्रतापगढ़ (राज.) के चातुर्मासमें आचार्यसंघके दर्शनार्थ गया तब मैंने आचार्य श्री शिवसागरजी महाराजके संघस्थ
आर्यिका १०५ ज्ञानमतीजी एवं इन्हींकी प्रेरणा से आचार्य श्री शिवसागरजी से दीक्षित १०५ आर्यिका जिनमतीजी एवं आदिमतीजीके भी दर्शन किये । आर्यिकात्रयके दर्शन करके भी अतीच हर्ष हुआ, क्योंकि इनकी करणानुयोग में भी अतीवरूचि थी तथा उन दिनों त्रिलोकसार व लोकविभागका स्वाध्याय कर रही थीं, मैं भी उसमें प्रतिदिन भाग लेने लगा। सम्प्रति आर्यिकात्रय पृथक्-पृथक् विहार कर रही हैं। श्रीज्ञानमतीमाताजी तो अन्य दो आर्यिकाओं के साथ प्राय: हस्तिनापुरक्षेत्रके आसपास बिहार कर रही हैं। श्री जिनमतीमाताजी आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराजके संघमें हैं तथा श्री आदिमतोजी आ. क. श्री श्रुतसागरजी महाराजके संघमें हैं। सन् १९७३ में नजफगढ़ (दिल्ली) चातुर्मास में ज्ञानमतीमाताजीसे प्रेरणा पाकर आदिमतीमाताजीने गोम्मटसारकर्मकाण्डकी टीका पं. प्रवर टोडरमलजी कृत ढुंढारीभाषा टीका एवं मराठी टोका से संदृष्टियोंको यथास्थान लगाकर लिखी है। उसका बाचन स्वयं आ. के. श्रीके सान्निध्यमें मुनि श्री वर्धमानसागरजी के सहयोगसे प्रारम्भ हुआ और लगभग ३०० गाथाओंका वाचन होजानेपर महाराजश्रीने वह टीका मुझे देते हुए