Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 11
________________ लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थमें गणितका भी बहुत कुछ विषय है और विद्यार्थी जीवनमें गणित मेरा मुख्य एवं प्रिय विषय रहा है अत: धीरे-धीरे जैन-दर्शनसम्बन्धी करणानुयोगके प्रति मेरा आकर्षण बढ़ता ही गया। फलस्वरूप जीवनमें करणानुयोगसम्बन्धी वर्तमानमें उपलब्ध प्रायः सभी प्रमुखग्रन्धोंके स्वाध्यायका अवसर प्राप्त हुआ है। इसीप्रकार एकबार श्रीमान् पं. हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री धवल ग्रन्थराजका सहारनपुर शास्त्रभण्डारकी हस्तलिखित प्रतिसे मिलान करनेके लिये यहाँ पधारे थे और उसी बीच वे दिनमें एक घण्टेके लिये सिद्धांतग्रन्थ श्री धवलका अर्थ भी करते थे। चूंकि अब स्वाध्याय के प्रति विशेषरुचि हो ही गई थो अत: उनका प्रवचन सुननेके लिए दो मील दूर कचहरीसे एक घण्टेके लिये मन्दिरजीमें आ जाता था। पंडितजो उन दिनों धवलग्रन्थका सम्पादनकार्य भी कर रहे थे इसीलिये वे सहारनपुर आये थे। जब धवलग्रन्धकी दो पुस्तकें प्रकाशित हो गई तब उक्त सिद्धान्तशास्त्रीजीको दसलक्षणपर्वमें प्रवचनार्थ सहारनपुर समाजने आमन्त्रित किया, वे पधारे तथा उन्हींकी प्रेरणा पाका उक्त दोनों पुस्तकें अपने निजी शास्त्रभण्डारके लिये मैंने मंगा ली, किन्तु इसदृष्टिसे कि ये ग्रन्थराज अपनी समझमें नहीं आयेंगे वे शास्त्रभण्डारकी अलमारीमें ही विराजमान रहे। एक दिन मैंने व मेरे लघुभ्राता नेमिचन्दजी वकीलने विचार किया कि इन ग्रन्थोंको पढ़कर देखना तो चाहिये कि इनमें क्या विषय प्रतिपादित किया गया है ? और इसो जिज्ञासु वृत्तिके परिणामस्वरूप भ्रातृदयने धवल प्रथम व द्वितीयपुस्तकका स्वाध्याय प्रारम्भ कर दिया, किन्तु क्षयोपशमकी मंदतासे बहुत कम समझमें आया। इसपर भी दोनों भाई हतोत्साह नहीं हुए तथा धवलग्रन्थके आगामी प्रकाशितभाग भी मंगाते रहे और स्वाध्याय किया परन्तु स्थितिमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। जो स्थल समझमें नहीं आते थे उनमेंसे कुछ विषय शंकारूपसे श्री पं. फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री व श्री पं. होरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीके पास भेजते रहे। उक्त विद्वद्वय उनका समाधान भेजनेकी कृपा भी करते थे। जिससमय धवलग्रन्धकी पाँचवीं पुस्तक प्रकाशित हुई और मंगाकर स्वाध्याय किया तो मानों ऐसा लगा जैसे ज्ञानकपाट खुल ही गये हों। इस पुस्तकके स्वाध्यायसे मात्र इसके ही विषयका हार्द समझ में आया हो ऐसी बात नहीं है, अपितु उससे पूर्वपुस्तकोंका भी प्रतिपाद्यविषय स्पष्ट हो गया। इसप्रकार भ्रातृयुगलको निरन्तर परिश्रमपूर्ण वृत्तिके फलस्वरूप विषय तो स्पष्ट होने ही लगा किन्तु साथ ही लिपिकारोंके प्रमादवश होनेवाली तथा विषयकी दुरूहताके कारण विषयस्पष्ट न होनेसे मुद्रित अनुवादमें जो अशुद्धियाँ रहने लगीं वे भी समझमें आने लगीं। उपर्युक्त तथ्य आत्मप्रशंसाके लिए नहीं लिखा गया है, इसके लिखनेमें यही अभिप्राय रहा है कि जिनवाणीका स्वाध्याय करते समय विषया स्पष्ट न होने पर निराश न होकर निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। कहा भी है - "TRY AND TRY AGAIN UNTIL YOU SUCCEED." जबतक तुम सफल नहीं होते तबतक बार-बार प्रयत्न करना चाहिए। इस सम्बन्ध एक कथा भी प्रचलित है कि एकबार एकराजा युद्धमें पराजित होकर युद्धभूमिसे भागकर एक मकानमें छिपकर बैठ गया। जिस कमरेमें वह बैठा था वहाँ उसने देखा कि एक मकड़ी धागेके सहारे कमरेकी छत तक पहुँचना चाहती है, किन्तु कुछ दूर चढ़नेके बाद वह पुन: पृथ्वीपर गिर जाती है। एकबार-दोबार-तोनबार ही नहीं, किन्तु कुल ९९ बार वह अपने उद्देश्यमें असफल रही फिर भी प्रयत्न जारी रहा और अन्तिम प्रयासमें वह सफल होकर छततक

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