Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 9
________________ प्रेसकॉपी तैयार की एवं मुद्रणकार्यमें भी यथासमय अपने विचार व्यक्त करते हुए ग्रन्थको साङ्गोपाङ्ग आद्यंत सुन्दर बनानेमें पूर्ण सहयोग किया। मैं पूज्य मुनिश्री की इस कार्य करनेकी लगनको देखते हुए मंगलकामना करती हूँ कि आप अहर्निश जिनवाणी पाताकी सेवा में संलग्न रहें। दीक्षोपरांत आपने अनेक शारीरिक कष्ट सहे हैं तथा प्रस्तुत ग्रन्थप्रकाशनके समय भी शारीरिक कष्टोंकी चिंता न करते हुए आपने कठोर परिश्रम किया है। मैं आपके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ। इस महान् कार्य के पूर्ण होने में परम पूज्य आचार्यकल्पश्री श्रुतसागरजी महाराज तथा मूल-प्रेरणास्रोत पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीमाताजीकी महदनुकम्पा एवं मंगलआशीर्वाद ही मुख्यकारण रहे हैं, क्योंकि इस महान् कार्यको पूर्ण करनेमें मैं सक्षम नहीं थी। यदि उक्त उभय त्यागीजरका आशीर्वाद मेरा लम्बल नहीं होता तो मुझसे इस कार्यकी सम्पूर्ति होना अत्यन्त कठिन था। इस महायज्ञमें मुख्तार सा. श्री रतनचन्दजीके कठिन परिश्रमको भी नहीं भूला जा सकता है। '७६ वर्षीय इस वृद्धावस्थामें उनकी कार्य करनेकी अपूर्वनिष्ठा एवं लगन अनुकरणीय है। परम पूज्य उभय महाराजश्री एवं माताजीके प्रति अपनी कृतज्ञताभिव्यक्ति पुरस्सर उनके चरणोंमें अपनी विनय प्रकर, करती हुई उनके चिरकाल तक इसी शुभाशीर्वादके बने रहने की सदैव कामना करती हूँ । साथ ही, मुख्तार सा. के प्रति भी वीरप्रभुसे मंगलकामना करती हूँ कि वे चिरायु हों तथा इसीप्रकार जिनवाणीकी सेवा करते रहें। ग्रन्ध-प्रकाशनसम्बन्धी सम्पूर्ण व्यवस्था आचार्यकल्पश्री के संघस्थ ब्र. लाड़मलजीने की है. जिनलगाके प्रचार-प्रगामें हम वृद्धावस्थामें आपमें जो लगन है, वह युवा जैसी लगतो है। उनके प्रति भी मेरा शुभाशीर्वाद है कि वे दीर्घायु होकर सतत जिनवाणी सेवा एवं उसके प्रचार-प्रसारमें निरत रहें। विज्ञेषु किमधिकम् । प्रस्तुत नवीन संस्करण : गोम्मटसार कर्मकाण्ड के इस नवीन संस्करण के संशोधन का कार्य पण्डित जवाहरलाल जी सिद्धान्तशास्त्री ने रुग्ण होनेपर भी करना प्रारंभ किया था किन्तु बहुत कुछ प्रयास करने पर भी वे इस ग्रन्ध के ८३ पृष्ठों का ही संशोधन कर सके। उन्होंने यथास्थान कुछ टिप्पण भी दिये। परन्तु अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण वे पूरे ग्रन्ध का संशोधन नहीं कर सके। वे स्वस्थ रहें. उनके द्वारा जिनवाणी का उद्धार एवं प्रचारप्रसार हो ; पंडित जी दीर्घायु हों, यही मेरी भावना है। इस संस्करण के सम्पादक डॉ. चेतनप्रकाश जी पाटनी हैं। इन्होंने अनेक ग्रन्थों का संशोधन एवं सम्पादन किया है। आपको जिनवाणी के प्रकाशन की विशेष अभिरुचि है। आपके माध्यम से अनेक भहत्त्वपूर्ण कृतियां प्रकाशित हुई हैं और हो रही हैं। मेरी यही भावना एवं आशीर्वाद है कि ये स्वस्थ रह कर सतत जिनवाणी माता की सेवा करके सभ्यग्ज्ञान की गरिमा को बढ़ाते रहें। इस विशालकाय ग्रन्थ के निर्दोष और सुन्दर प्रस्तुतीकरण के लिए निधि कम्प्यूटर्स के श्री क्षेमंकर पाटनी भी मेरे आशीर्वाद के पात्र हैं। - आर्यिका आदिमती םםם

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