Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका नाल्कुगतिगलमय्दु जातिगळुमुच्छ्वासमं विहायोगति त्रसबादरपर्याप्तयुगळंगळं सुभगसुस्वरादेयशस्कोत्तिबगळगळं तीर्थकरनाममुमिन्तु भेणु नामकर्मदोळु जीवविपाकिगळु सप्तविंशतिगळप्पुवु । २७ ॥ ग ४ । जा ५ । उ १ । वि २।। २। बा २। ५२। सु २। सु२। आ २ । य २। ती १ । युति २७॥
___ अनंतरं सामान्यकर्ममूलोत्तर कर्मप्रकृतिगळोळ प्रथमोदिष्टसामान्यकम्मं नामकर्म ५ स्थापनाकर्म द्रव्यकर्म भावकर्मभेदविदं चतुविधमदु पेन्दपरेके दोडे :
__ अवगणिवारणद्रं पयदस्स परूवणाणिमित्तं च।
संसयविणासणटुं तच्चट्ठवधारणटुं च ॥ अप्रकृतनिवारणार्थ प्रकृतस्य प्ररूपणानिमित्तं च । संशयविनाशनात्थं तत्वावधारणात्थं च॥
अप्रकृतायनिवारणार्थमागियं प्रकृतार्थप्ररूपणानिमित्तमागियु संशयविनाशनार्थमागियु १० तत्वावधारणार्थमागियु चतुविधनामादिनिक्षेपं पेळल्पडुगुमेके दोडे-श्रोतुगळ त्रिविधमप्परव्युत्पन्ननुमवगताशेषविवक्षितपदार्थनुमेकदेशतोऽवगतविवक्षितपदार्थमं दितिवरोळु प्रथमोद्दिष्टाव्युत्पन्ननव्युत्पन्ननप्पुरिदं विवक्षितपदार्थनुं नाध्यवस्यति निश्चयिसल्नरयं । अवगताशेषविवक्षितपदार्थनप्प द्वितीय संशेते संदेहिसुगुमे ते दोडे-कोऽर्थोऽस्य पदस्याधिकृत इति । प्रकृतार्थादन्यमय॑मादाय विपर्यस्यति वा इन्तु विपरीतनुमक्कू। मेणु एकदेशतोवगतविवक्षितपदार्थनप्प १५ तृतीय द्वितीयनंत संशेते संदेहिसुगुं। प्रकृतादादन्यमर्थमादाय विपर्यस्यति वा । प्रकृतार्थदत्तणिव मन्यार्थमं कैको डु विपरीतनक्कु मेणु एकेंदोडे सामान्यप्रत्यक्षदणिदमुं विशेषाऽप्रत्यक्ष
ननु श्रोतारस्त्रिविधा:-अव्युत्पन्नः अवगताशेषविवक्षितपदार्थः एकदेशतोऽवगतविवक्षितपदार्थश्चेति । तत्र प्रथमः-अव्युत्पन्नत्वात् विवक्षितपदार्थ नाध्यवस्यति इदमित्यमेवेति. याथात्म्यप्रतिपत्त्यनुत्पत्तेः । गच्छतस्तृणस्पर्शवत् । द्वितीयः-कोर्थोऽस्य ? इति संशेते । सामान्यप्रत्यक्षात् विशेषाप्रत्यक्षात उभयविशेषस्मृतेश्च २० संशयस्य दुनिवारत्वात् । स्थाणुर्वा पुरुषो वेति । अथवा प्रकृतार्थादन्यमर्थमादाय विपर्येति । सामान्य प्रत्यक्षात् विशेषाप्रत्यक्षात् विपरीतस्मृतेश्च विपर्यासस्यावश्यंभावात् शुक्तिकाशकले रजतमिति । तथा तृतीयोऽपि द्वितीयवत् संशेते विपर्येति च । तत् एवाप्रकृतार्थनिवारणार्थ प्रकृतार्थप्ररूपणार्थ संशयविनाशार्थ तत्त्वाव
श्रोता तीन प्रकारके होते हैं-अव्युत्पन्न, समस्त विवक्षित पदार्थको जाननेवाला और एकदेशसे विवक्षित पदार्थको जाननेवाला। इनमें से प्रथम अव्यत्पन्न होनेसे विवक्षित ५ पदार्थको नहीं जानता, यह ऐसा ही है इस प्रकारका यथार्थज्ञान उसे नहीं होता। जैसे मार्गमें चलते हुएको तृणका स्पर्श होनेपर यथार्थ ज्ञान नहीं होता कि क्या है। दूसरा 'इसका क्या अर्थ है' इस प्रकार संशय करता है। क्योंकि सामान्यका प्रत्यक्ष, विशेषका अप्रत्यक्ष और दोनों के विशेष धौंका स्मरण होनेसे संशय अवश्य होता है जैसे यह स्थाणु है या पुरुष है। अथवा वह प्रकृत अर्थसे अन्य अर्थ लेकर विपरीत जानता है जैसे सीपमें ३० चाँदीका ज्ञान करना। यहाँ दोनोंमें पाये जानेवाले समान धर्मका प्रत्यक्ष और दोनोंके विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष न होनेसे व सीपसे विपरीत चाँदीका स्मरण आनेसे सीपको चाँदी समझ लेता है। तीसरा श्रोता भी दूसरेकी तरह संशय करता है या विपरीत जान लेता है। इसीलिए अप्रकृत अर्थका निवारण, प्रकृत अर्थका प्ररूपण, संशयका विनाश और तत्त्वका अवधारण करनेके लिए जबतक सामान्य आदि भेद-प्रभेदवाले कर्मका कथन ३५
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