Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 605
________________ कर्णाटवृत्ति जावतत्वप्रदीपिका नताधि कषायंगळनु । असंयतचतुष्कं असंयतसम्यग्दृष्टियादियागि नाकुं गुणस्थानवत्तगळ । अनिवृतिकरणचरमे अनंतानुबंधिकषायचतुष्टयक्क द्वादशरुषायनोकषाय स्वरूपकरण विसंयोजनविधानबोळ, बोरकोळव करणलब्धियोळधःप्रवृत्तापूर्थ्यानिवृत्तिकरणपरिणामंगळोळा व्युच्छित्यनिवृत्तिकरण चरमसमयवोलु :-- जुगवं संजोगित्ता पुणोवि अणियट्टिकरणवहुभागं । बोलिय कमसो मिच्छं मिस्सं सम्मं खवेइ कमे ||३३६ ॥ ५५५ युगपद्विसंयोज्य पुनरप्यनिवृत्तिकरणबहुभागं । नीत्वा क्रमशो मिथ्यात्वं मिश्रं सम्यक्त्वं क्षपयति क्रमे ॥ ० अनंतानुबंधिकषायचतुष्कमनक्रमविंदं युगपदोम्मों दलोळे' मनिवृत्तिकरणपरिणाम कालांतमुहूर्तच रमसमयदोळं परप्रकृतिरूपविदं विसंयोजिसि अंतर्मुहूर्तकालं विश्रमिति । पुनरपि मत्तमनंतानुबंधिविसंयोजनविधानदोळे तंत' दर्शनमोहक्षपणोद्योगदो, दोरेको करणलब्धियोळधःप्रवृत्तापूर्व्वानिवृत्तिकरणंगळोळा व्युत्पत्यनिवृत्तिकरण कालांतर्मुहूर्त्त संख्यात बहुभागमं २१ ४ कळिदेकभागावशेषमादागळा प्रथमसमयं मोकळ्गोंडु मिथ्यात्व मिश्र सम्यक्त्वप्रकृति में ब दर्शन मोहत्रयमं यथाक्रर्माद क्षपियिसुगुमंतु क्षपियिसि असंयतावियावा नाल्कुं गुणस्थानवत्तगळ ४ नैव स्युः। तु–पुनः, असंयतादिचतुर्गुणस्थानवर्तिनोऽनिवृत्तिकरणपरिणाम कालांतर्मुहूर्त चरमसमयेऽनंतानुबंधि- १५ कषाय चतुष्कं - ।। ३३५ ।। युगपदेव विसंयोज्य द्वादशकषायनोकषायरूपेण परिणमय्य अंतर्मुहूर्तकालं विश्रम्य पुनरप्यनंतानुबंधि विसंयोजनवद्दर्शनमोहक्षपणोद्योगेपि स्वीकृतकरणलब्धावत्रः प्रवृत्तापूर्वाऽनिवृत्तिकरणेषु तदुत्पत्यनिवृत्तिकरण १० कालांतर्मुहूर्तसंख्यातबहुभागं २१४ अतीत्यैकभागे प्रथमसमयात्प्रभृतिमिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतीः क्रमेण क्षप ४ ܐ २० तियं वायु और देवायुका सत्व होनेपर क्रमसे देशत्रत, महाव्रत और क्षपकश्रेणी नहीं होती । अर्थात् मुज्यमान या बध्यमान रूपसे नरकायुका सत्त्र होनेपर अणुव्रत नहीं हो सकते । मुज्यमान और बध्यमान रूपसे तिर्यंचायुका सत्त्व होनेपर महाव्रत नहीं हो सकते। और भुज्यमान या बध्यमान रूपसे देवायुका सत्व होनेपर क्षपकश्रेणी नहीं होती । २५ असंयत आदि चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी चार और दर्शनमोहनीय तीन इन सातों की सत्ताका नाश करके क्षायिक सम्यग्दृष्टी होता है । सो कैसे नाश करता है यह कहते हैं- - प्रथम तीन करण करता है। उनमें से अनिवृत्तिकरणके अन्तर्मुहूर्त कालके अन्त में अनन्तानुबन्धी चतुष्कका एक साथ विसंयोजन करता है उन्हें बारह कषाय और नोकषायरूप परिणमाता है । विसंयोजन करके अन्तर्मुहूर्त तक विश्राम करता है । फिर दर्शनमोहको नष्ट करनेके लिए पुनः अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति - करण करता है । अनिवृत्तिकरण के काल अन्तर्मुहूर्त में संख्यातसे भाग दें । संख्यात बहुभाग प्रमाण काल बीत जानेपर जब एक भाग काल शेष रहे तब उसके प्रथम समयसे लगाकर 1 For Private & Personal Use Only Jain Education International ३० www.jainelibrary.org

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