Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 657
________________ कर्णाटवृत्ति जीवत्तत्त्वप्रदीपिका ६०७ अबध्यमान द्वितीयसत्वस्थानदोळ अबध्यायुष्यनं कुरुतु विवक्षितायुष्यमोवं कळेदु नूर नाल्वत्तनाल्कु प्रकृतिसत्वस्थानक्के भुज्यमाननारकतिर्य्यग्मनुष्य देवनुमेंब नाकुं भंगंगळtyवल्लि प्रत्येक मितरास्त्रयमुं तीत्थंमुं रहितमागि नूर नाल्वत्तनाल्कु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुं । संदृष्टि : -- बध्यमान अबध्यमान स्वामियप्प मिथ्यादृष्टिजीवं ५ तृतीयबध्यमानाः स्थानबोळमुन्नमप्रभत्तगुणस्थान मं पोद्दियाहारक चतुष्टयमनुपाज्जिसर्व सत्वरहितं मेणऽप्रमत्त गुणस्थान मं पोद्दिदोनाहारकचतुष्टयमनुपाज्जसि क्रर्मादिदं मिथ्यादृष्टिधागियाहारकचतुष्टयमनुद्वेल्लनमं माडितत्सत्वरहितजीवं मेणु मनुष्यं बद्धनरकायुष्यं गृहीत वेद रुसम्यक्त्वनसंयतसम्यग्दृष्टिकेवलिद्वयोपांतदोळ षोडशभावनापरिणतं तीत्थंकरपुण्यबंधमं प्रारंभिसि तोत्थंकर सत्कम्र्मनागि मरणकालवोळ भुज्यमानमनुष्यायुष्यमंतम् मुहूर्त मात्रावशेषमा गुत्तिरलु द्वितीयादितृतीय पृत्थ्विपय्र्यंतं जिगमिषुमिथ्यादृष्टियागि वत्तिप- १० तदबध्यमानायुः स्थानं तदेकं बद्धायुविना चतुश्चत्वारिंशच्छत प्रकृतिकं । तस्य भंगारचतुर्गतिभुज्यमानायुर्भेदाच्चत्वारः । संदृष्टिः बध्य अब Jain Education International १४५ ५ १४५ ५ १४४ ४ १४४ ४ कश्चिन्मिथ्यादृष्टिः प्रागप्रमत्तगुणस्थानं गत्वाऽनुपाजिताहारकचतुष्टयतया तदसत्त्वाऽथवा उपार्ज्यं क्रमेण मिथ्यादृष्टिर्भूत्वोद्विल्य तदसत्त्वः सन् मनुष्यो बद्धनरकायुर्गृहीत वेदकसम्यक्त्वोऽसंयतः केवलिद्वयोपांते षोडशभावनाभिस्तीर्थकर युग्यबंधं प्रारभ्य तत्सकर्मा भूत्वा मरणे भुज्यमानायुष्यं तर्मुहूर्तेऽवशिष्टे द्वितीयतृतीय पृथ्व्योर्ग- १५ • अबद्धायु के दूसरे स्थान में एक सौ पैंतालीस में से एक बध्यमान आयुकी सत्ता घटाने से एक सौ चवालीस प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान होता है। इसमें मुज्यमान चार आयुकी अपेक्षा चार भंग जानना । कोई मिध्यादृष्टि जीव पहले अप्रमत्त गुणस्थान में गया किन्तु वहाँ उसने आहारक चतुष्कका बन्ध नहीं किया । अतः उसके आहारक चतुष्कका सत्त्व नहीं है । अथवा अप्रमत्त २० गुणस्थानमें आहारक चतुष्कका बन्ध करके पीछे मिध्यादृष्टि होकर आहारक चतुष्ककी उद्वेलना कर दी। अतः उसके भी आहारक चतुष्कका सत्व नहीं रहा । ऐसा मनुष्य पहले नरकायुका बन्ध करके पीछे वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करके असंयत गुणस्थानवर्ती होकर Sharda निकट सोलह भावनाके द्वारा तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ करके तीर्थंकर २५ १. ब अवध्यमानद्वितीयसत्वस्थाने चाबद्धायुष्कं प्रति विवक्षितैकैकायुरभावाच्चतुश्चत्वारिंशत्शतम् । तद्भगांश्चत्वारः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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