Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 658
________________ ६०८ गो० कर्मकाण्डे निदोदे भंगमक्कु । मातंगे तिर्य्यगायुष्यमुं देवायुष्य मुमाहारकचतुष्टय मुमिताएं प्रकृतिरहितमा गि नूरनाल्वर्त्तरडु प्रकृतिसत्वस्थान मक्कुमितरबद्धतिर्य्यग्मनुष्यायुष्यरोळ तीर्थसत्वं दो रेकोळवु । बद्धदेवायुष्यं तीर्थंकर सत्कर्मनादोर्ड सम्यक्त्वच्युतिथिल्ल । मनुष्य नल्लवित रंगतित्रयदोळ तीर्थंकरबंधप्रारंभ मिल्लप्पुदरिदं नरकगतियोळं देवगतियोळं तीत्थंकरबंधमसंयतरुगळोळ तु पेळल्५ पट्टु नल्वेड । . तीथंबंधप्रारंभं मनुष्यगतियोळेयक्कं । सम्यक्त्वच्युतियिल्लविद्दडुत्कृष्टददं तीर्थंनिरंतरबंधाद्धे । अंतर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षन्यूनपूर्वकोटिद्वयाधिक त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमितमक्कुमपुरिदं । अल्लि अबद्धायुष्यनं कुरुत्तु मनुष्यायुष्यमं कळेदु भुज्यमाननारकं द्वितीय तृतीय पृथ्विोपप्रकालदोळु मिथ्यादृष्टियप्पुवरिदमातनोल तिर्य्यगायुष्यमुं मनुष्यायुष्यमुं देवायुष्यमुमाहारकचतुष्टयमुं रहितमागि नूरनात्वत्तों दु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमदोदे भंगमकुं । १० संदृष्टि: मिष्यमान मिथ्यादृष्टिः स्यात् तस्य तृतीयं बध्यमानायुः स्थानं तिर्यग्देवायुराहारकचतुष्काभावाद्वाचत्वारिशच्छतकं भवति । तस्य भंग एक एव बद्धतिर्यग्मनुष्यायुष्क्रयोस्तीर्थं स त्वाभावात् । बद्धदेवायु के तत्सत्त्वेऽपि सम्यक्त्वप्रच्युत्यभावाच्च । तर्हि मनुष्य एव तत्प्रारंभे, देवनारकासंयतेऽपि तद्बंधः कथं ? सम्यक्त्वाप्रच्युता - वुत्कृष्टत निरंतर बंधकालस्यांतर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षन्यूनपूर्वको टिद्वयाधिकत्रयस्त्रिशत्सागरोपममात्रत्वेन तत्रापि संभ१५ वात् । तदबद्धायुः स्थानं मनुष्यायूरहितमिति तिर्यग्मनुष्यदेवायुराहारकचतुष्काभावादेकचत्वारिंशच्छतकं । तस्य द्वितीयतृतीय पृथ्य पर्याप्तनारकमिथ्यादृष्टेरेव संभवाद् भंग एकः । संदृष्टिः २० २५ ३० की सत्तासहित हो । तथा भुज्यमान आयुमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर दूसरे-तीसरे नरक में जाने योग्य मिध्यादृष्टि हो। उस जीवके तीसरा बद्धायु स्थान तिर्यंचायु, देवायु और आहारक चतुष्क बिना एक सौ बयालीस प्रकृतिरूप होता है । उसमें भंग एक ही होता है । क्योंकि जिसने तिचायु या मनुष्यायुका बन्ध कर लिया है उसके तीर्थंकरका बन्ध नहीं होता । और जिसने देवायुका बन्ध कर लिया है उसके तीर्थंकर की सत्ता हो सकती है किन्तु वह सम्यक्त्व से भ्रष्ट होकर मिध्यादृष्टि नहीं होता । शंका- यदि मनुष्य ही तीर्थंकर के बन्धका प्रारम्भ करता है तो देव और नारक असंयत सम्यग्दृष्टीके तीर्थंकरका बन्ध कैसे कहा है ? समाधान - तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धका प्रारम्भ तो मनुष्यके ही होता है। पीछे यदि सम्यक्त्व से भ्रष्ट न हो तो तीर्थंकर प्रकृतिका उत्कृष्ट निरन्तर बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षहीन दो पूर्व कोटि अधिक तैंतीस सागर प्रमाण होनेसे देव नारकी असंयत सम्यदृष्टीके भी उसका बन्ध सम्भव है । तीसरा अबद्धायु स्थान तीन आयु और आहारक चतुष्क बिना एक सौ इकतालीस प्रकृति रूप है क्योंकि इसमें मनुष्यायुका भी सत्त्व नहीं है । सो तीर्थंकरकी सत्तावाला मनुष्य जिसने पहले नरकाका बन्ध किया था मिथ्यादृष्टि होकर मरण करके दूसरे-तीसरे नरक में जाकर अपर्याप्त अवस्था में मिध्यादृष्टि ही रहता है। उसके भुज्यमान नरकायुरूप एक ही भंग होता है । चौथा बद्धायुस्थान विवक्षित भुज्यमान बध्यमान आयुके बिना शेष दो आयु, आहारक चतुष्क और तीर्थंकरका अभाव होनेसे एक सौ इकतालीस प्रकृतिरूप होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698