Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 662
________________ ६१२ गो० कर्मकाण्डे लत्रयजीवं बद्धतिय॑गायुष्यं पंचेंद्रियतिर्यग्जातियोळु बंदु पुट्टि पर्याप्तियिद मेळे सुरषट्कर्म कटुत्तं विरलु नरकद्विकमनागळकटुवनल्लनप्पुरिंदमल्लि संख्यैकत्वमुं प्रकृतिभेदमुमुटप्पुरिदं तृतीयभंगमक्कु मा वैक्रियिकाष्टकमनुद्वेल्लनमं माडिदेकेंद्रियविकलत्रयजीवं बद्धमनुष्यायुष्यं मनुष्यरोळु बंदु पुट्टि पर्याप्तियिद मेले सुरषट्कर्म कटुत्तं विरलु संख्यैकत्वमुं प्रकृतिभेदमुमुंटप्पु५ दरिद चतुर्थभंगंगळवकुम दितु नाल्कु भंगंगळप्पुवु । संदृष्टि : बध्य० १३६ अबध्य० अष्टमबध्यमानायुःस्थानदोछ नारकषट्कमनुढल्लनमं माडिदेतप्पेकेंद्रियविकलत्रयजीवंगे भुज्यमानतिर्यगायुबंध्यमानमनुष्यायुष्य मल्लदितरसुरनारकायुद्धय मुमाहारकचतुष्टयमुं तीर्थमुं तद्वितीयेऽश्रद्धायुःस्थाने षट्त्रिंशच्छतकोद्वेल्लितदेवद्विकस्यैकेंद्रियविकलत्रयमिथ्यादृष्टेः तस्मिन्नेव भवे भंग एकः । पुनस्तस्यैव मनुष्येषूत्पन्नस्यापर्याप्त काले मिथ्यादृष्टित्वात्सुरचतुष्कस्याबंधाद् द्वितीयः, संख्यैकत्व१. प्रकृतिभेदयोस्सद्भावात् । पुनस्तस्यैव वैक्रियिकाष्टके उद्वेल्लिते पंचेंद्वियतिर्यग्जातावुत्पन्नस्य पर्याप्तरुपरि सुरषटकबंधेन नरकद्विकस्याधात्तृतीयः । मनुष्येषूत्पन्नस्य सुरषट्कबंधे चतुर्थः । एवं चत्वारो भंगा भवति । सातवाँ अबद्धायुस्थान एक सौ छत्तीस प्रकृतिरूप है। जिसके देवद्विककी उद्वेलना हुई है ऐसे एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय मिथ्यादष्टि जीवके उसी पर्यायमें आहारक चतुष्क, तीर्थकर, सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय, देवगति, देवानुपूर्वी तथा भुज्यमान तियंचायु १५ विना शेष तीन आयु इन बारह के बिना एक सौ छत्तीसका सत्त्व पाया जाता है। अतः एक भंग तो यह हुआ। पुनः वही देवद्विककी उद्वेलना करनेवाला एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव मरकर मनुष्यपर्यायमें उत्पन्न हुआ। वहाँ अपर्याप्त अवस्थामें मिथ्यादृष्टि होनेसे सुरचतुष्कका बन्ध नहीं होता । अतः पूर्वोक्त नौ और भुज्यमान मनुष्यायु बिना तीन आयु, इस तरह बारह बिना एक सौ छत्तीसका सत्त्व होता है यह दूसरा भंग है। दोनोंमें २० संख्या समान होते हुए भी प्रकृतिभेद होनेसे भंग है। पुनः जिसके वैक्रियिक अष्टककी उद्वेलना हुई है ऐसा वही एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय जीव मरकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हुआ। वहाँ पर्याप्त अवस्थामें देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर व अंगोपांग, बन्धन, संघात इस सुरषट्कका बन्ध किया और नरकगति नरकानुपूर्वीका बन्ध नहीं किया। वहाँ आहारक चतुष्क, तीर्थंकर, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, नरकगति, नरलानुपूर्वी ये नौ २५ और भुज्यमान तिर्यंचायु बिना शेष तीन आयु इन बारह बिना एक सौ हत्तीसका सत्त्व पाया जाता है। यह तीसरा भंग है। पुनः वही जीव मरकर मनुष्यपर्याय में उत्पन्न भेददिदं ॥ सुरगति सुरगत्यानुपूर्व्य वैक्रियिक तदंगोपांगबंधनसंघातरूप सुरषट्क । बंधन संघात द्वयसहित वैक्रियिकषट्क मुंपेल्द पदिमूरुवेल्लनप्रकृतिगळोळु वैक्रियिकवैक्रियिकांगोपांगद्वयदोळ वैक्रियिकबंधनसंधातमंतर्भावि ये बुदत्यं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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