Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 677
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६२७ भुज्यमानमनुष्यनु बध्यमानदेवायुध्यन व भंगद्वयमक्कु । मा स्थानदोळ मिथ्यात्व प्रकृतियं क्षपिसि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियं क्षपिसुत्तिप्पं भुज्यमानमनुष्यंगे अन्यतरायुष्यमोदु तिर्य्यगायुष्यमुं अनंतानुबंधिचतुष्क मिथ्यात्वप्रकृतियुमंतु सप्तप्रकृतिसत्वर हितमागि नूर नाल्वत्तोदु प्रकृतिसत्व स्थानमक्कु मल्लियुमा भंगद्वयमक्कुमा स्थानदोळु मिश्रप्रकृतियं क्षपिसि सम्यक्त्वप्रकृतियं क्षपित्तमिसंगित रायु स्तिय्यंगाद्वितयमुं अनंतानुबंधिचतुष्टयमुं मिथ्यात्वप्रकृतियं मिश्रप्रकृतियुमंतें दुं ५ प्रकृतिरहितमागि नूरनात्वत्तु प्रकृतिसत्वस्थानदोळु मुंपेळबेरडे भंगंगळवु । आ स्थानदोळु सम्यक्त्व प्रकृतियं क्षपिसिदा तंगन्यतरायु स्तियंगाद्विक मुमनंतानुबंषिचतुष्टयमुं दर्शनमोहनीयत्रितयमुमंतु नवप्रकृतिरहित मागि नूर मूवत्तो भत्त् प्रकृतिसत्वस्थानदोळं मुंपेन्द भुज्यमानमनुष्यं बद्धनरकवेवायुष्यभेददेरेडे भंगंगळप्पुवीबद्घायुष्यन स्थानपंचकद केळगण अबद्धायुष्यन पंक्तिय नरकायुःभुज्यमानमनुष्यबध्यमानदेवायुश्चेति द्वौ द्वौ भंगो भवतः । तदधस्तनाबद्धायुष्कपंक्ती पंचस्थानेषु १० पंचचत्वारिंशच्छत के विसंयोजितानंतानुबंधिनः एकचत्वारिंशच्छतस स्वस्थाने भुज्यमाननारकमनुष्यदेवायुर्भेदात्त्रयो भंगाः । क्षतिमिथ्यात्वस्य चत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने भुज्यमानमनुष्याणामेको भंग: । क्षपितमिश्रस्यैकान्नचत्वारिशच्छत के भुज्यमानन रकमनुष्यदेवायुर्भेदात्त्रयो भंगाः कृतकृत्यवेदकतीर्थसत्त्वमनुष्यस्य गतिद्वयजननसंभवात् । क्षपितसम्यक्त्वप्रकृतेरष्टत्रिंशच्छतकेऽपि त एव त्रयो भंगा । असौ क्षायिकसम्यग्दृष्टिः तस्मिन्नेव भवे घातीनि तथा २० और जिसके सम्यक्त्व मोहनीयका क्षय हुआ है उसके एक सौ उनतालीस प्रकृतिरूप १५ पाँचवाँ स्थान है । इन चारों स्थानों में भी पूर्ववत् भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान नरकायु और भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान देवायु ये दो दो ही भंग होते हैं। अबद्धायुके प्रथम पंक्ति सम्बन्धी पाँच स्थानों में प्रथम स्थान एक सौ पैंतालीस प्रकृतिरूप और अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होनेपर दूसरा स्थान एक सौ इकतालीस प्रकृतिरूप है । इन दोनों स्थानोंमें भुज्यमान नरकायु मनुष्यायु और देवायुकी अपेक्षा तीन भंग है । मिथ्यात्वका क्षय होनेपर तीसरा स्थान एक सौ चालीस प्रकृतिरूप है । उसमें भुज्यमान मनुष्यायु एक ही भंग होता है । मिश्रमोहनीयका क्षय होनेपर एक सौ उनतालीस प्रकृतिरूप चौथा स्थान है । उसमें भुज्यमान नरकायु, मनुष्याय देवायुकी अपेक्षा तीन भंग हैं। क्योंकि तीर्थंकर की सत्तावाला कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी मनुष्य मरकर नरक और देवगति में उत्पन्न हो सकता है । अतः देवगति और नरकगति में भी इस प्रकारका सत्वस्थान सम्भव है । २५ सम्यक्त्व मोहनीयका अभाव होनेपर एक सौ अड़तीसका सत्तारूप पाँचवाँ स्थान होता है । यहाँ भी भुज्यमान नरकायु मनुष्यायु और देवायुकी अपेक्षा तीन भंग होते हैं। मनुष्यायु सहित एक सौ अड़तीस सत्त्वस्थानवाला यह क्षायिक सम्यग्दृष्टी यदि उसी भव में घातिया कर्मों को नष्ट कर केवली होता है तो उसके गर्भ और जन्मकल्याणक न होकर तप आदि तीन १. इल्लि क्षायिकनपुर्दार भुज्यमाननारकं बध्यमानमनुष्यायुष्यनुं भुज्यमानदेवं बध्यमानमनुष्यायुष्यमुमे व ३० भंगंगळु कूडि नाल्कु भंगंगळुळडं समभंगंगळे एंदु एरडु भंगंगळ तेगदु येरडे भंगंगळे बदथं । षट्सप्ताष्टप्रकृतिरहितस्थानदोळ, नाल्कु भंगगळिर्ग संभवमिल्लप्पुदरिदेरर्ड भंगंगळ । एक दोडे अनंतानुबंघिय - मिथ्यात्वप्रकृतियनुर्कडिसि मिश्रप्रकृतियं केडिसद मुन्न मरण मिल्लप्पुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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